3.5.08

लफ्ज के आईने में संवरता हूं मैं

दिल से जब भी तुझे याद करता हूं मैं
खुशबुओं के नगर से गुजरता हूं मैं
गुनगुनी सांस की रेशमी आंच में
धूप सुबह की होकर उतरता हूं मैं
नर्म एहसास का खुशनुमा अक्स बन
लफ्ज के आईने में संवरता हूं मैं
कांच के जिस्म पर बूंद पारे की बन
टूटता हूं बिखरकर सिहरता हूं मैं
चंपई होंठ की पंखुरी पर तिरे
ओस की बूंद बनकर उभरता हूं मैं
कहकहों की उमड़ती हुई भीड़ में
हो के नीरव हमेशा निखरता हूं मैं।
पं. सुरेश नीरव
मो.-९८१०२४३९६६

( डॉ.रूपेश श्रीवास्तव,राजीव रंजन प्रसाद, रजनीश के.झा, और जनाब अबरार अहमद आप लोग मेरे लेखन के नियमित साथी हैं, आप सबकी प्रतिक्रियाओं से अनायास ही मैं एक मानसिक लगाव महसूस करने लगा हूं, जो बड़ा खुशनुमा भी है, इसी नर्म-नाजुक एहसास के साथ.. फिर हाजिर हूं... एक नई ग़ज़ल के साथ...उम्मीद है पसंद आएगी.. )
जय भड़ास..जय..जय यशवंत

4 comments:

  1. पंडित जी,
    मुझे साथी न सही कम से कम शागिर्द बना लें . आपकी गजलों का बेसब्री से इन्तजार रहता है.
    और जब शागिर्द बनने की तमन्ना है तो टिप्पणी तो अनुशासनहीनता होगी.
    वरुण राय

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  2. बडे भईया प्रणाम। बहुत उम्दा गजल है। बधाई।

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  3. हो के नीरव हमेशा निखरता हूं मैं।
    हो के सागर भी बूंद-बूंद बिखरता हूं मैं। ।
    शब्दों की लेकर रेलगाड़ियां हररोज ही मैं
    तेरे दिल के स्टेशन से गुजरता हूं मैं.....
    पंडित जी इसी तरह से पिलाये जाइये काव्य के जाम पर जाम और टुन्न करे रखिये हम सबको.....

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  4. पंडित जी,
    दंडवत, आपके सवारने का जो सलीका है उसके हम तहेदिल से मुरीद हैं.
    जय जय भड़ास.

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