धार
कौन बचा है जिसके आगे
इन हाथों को नहीं पसारा
यह अनाज जो बदल रक्त में
टहल रहा है तन के कोने-कोने
यह कमीज़ जो ढाल बनी है
बारिश सरदी लू में
सब उधार का, माँगा चाहा
नमक-तेल, हींग-हल्दी तक
सब कर्जे का
यह शरीर भी उनका बंधक
अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार ।
प्रस्ताव
कल क्यों
आज क्यों नहीं ?
यह मत समझो
हमारे लिए आएगा कोई दिन
इससे अच्छा
कल या परसों
आज तो कम से कम हम घूम सकते हैं
सड़कों पर साथ-साथ
आज तो कम से कम मेरे पास एक कमरा है
किराए का
और जेब में कुछ पैसे भी हैं
हो सकता है कल का दिन और भी ख़राब हो
इस सूखे रेत को पार करते-करते कौन जाने
बाढ़ में डूब जाए सोन का यह पाट
कल खाली थी बन्दूकें
आज उनमें गोलियाँ भरी हैं
कल फिर वे खाली हो सकती हैं
कल क्यों ?
आज क्यों नहीं ?
जितनी भी है दीप्ति
धीरे धीरे झर गई मिट्टी
रहा बचा केवल जड़-रेशा
अंश अंश कर दमक घट रही
बदल सिर पर छाए
उतर गए सब बीच राह में
हुई उलार अब गाड़ी
हाथ आँचने उठे नागरिक
कब की टूटी पाँत
खाते खाते दाँत झड़े पर
पत्तल पकड़े रहा किनारे
चारों ओर अँधेरा छाया
मैं भी उठूँ जला लूँ बत्ती
जितनी भी है दीप्ति भुवन में
सब मेरी पुतली में कसती ।
हासिल
नोक महीन से महीन
करने की ज़िद में इतना
छीलता गया पेन्सिल
कि अन्त में हासिल रहा
ठूँठ ।
अनुभव
और तुम इतना आहिस्ते मुझे बांधती हो
जैसे तुम कोई इस्तरी हो और मैं कोई भीगी सलवटों भरी कमीज़
तुम आहिस्त-आहिस्ते मुझे दबाती सहला रही हो
और भाप उठ रही है और सलवटें सुलट-खुल रही हैं
इतने मरोड़ों की झुर्रियाँ-
तुम मुझ में कितनी पुकारें उठा रही हो
कितनी बेशियाँ डाल रही हो मेरे जल में
मैं जल चुका काग़ज़ जिस पर दौड़ती जा रही आख़िरी लाल चिंगारी
मैं तुम्हारे जाल को भर रहा हूँ मैं पानी ।
रात की गाथा
जैसे उतरने में एक पाँव पड़ा हो ऎसे
मानो वहाँ होगी एक सीढ़ी और
पर जो न थी
ऎसे ही हाथ पीठ पर पड़ते लगा उसे
और ऎसे ही सुबह हुई
हाथ पीठ पर रक्खे-रक्खे ।
एक बार भी बोलती
मैंने उसे इतना डाँटा
गालियाँ दी
दो तीन बार पीटा भी
फिर भी वह चुपचाप सारा काम करती गई
मैंने उसे जब भी जो कहा
किया उसने
जानते हुए भी बहुत बार कि यह ग़लत काम है
उसने वही किया जो मैंने कहा
पानी का गिलास हाथ में लेने से पहले
मैंने तीन बार दौड़ाया
गिलास गन्दा है
पानी में चींटी है
गिलास पूरा भरा नहीं है
और वह चुपचाप अपनी ग़लती मान कर
दौड़ती रही और जब मैं पानी पी चुका
धीरे से बोली--
पानी अच्छा था?
और मेरा गुस्सा बढ़ता गया
इससे ज़्यादा कोई किसी को तंग भी नहीं कर सकता
आख़िर वह पत्नी थी मेरी
और एक दिन सबके सामने, मेहमानों और घर के लोगों के सामने
मैंने उसे बुरी तरह डाँटा
फिर भी वह कुछ नहीं बोली रोई भी नहीं
अभी भी मैं समझ नहीं पाया
कि वह कभी बोली क्यों नहीं
मरते वक़्त भी वह कुछ नहीं बोली
आँखें बस एक बार डोलीं और...
वह कभी बोली क्यों नहीं
एक बार भी बोलती
अरुण कमल, जन्म: 15 फरवरी, 1954 , जन्म स्थान- नासरीगंज, रोहतास
कुछ प्रमुख कृतियाँ: अपनी केवल धार(1980), सबूत (1989), नए इलाके में (1996), पुतली में संसार (2004)
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार(1980), सोवियत भूमि पुरस्कार(1989), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1990), रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार(1996), शमशेर सम्मान (1997) एवं कविता संग्रह नए इलाके में के लिए (1998) साहित्य अकादमी पुरस्कार।
सम्प्रति : पटना विश्विद्यालय में अध्यापन , आलोचना का संपादन
मोबाइल-o9931443866
अभी भी मैं समझ नहीं पाया
ReplyDeleteकि वह कभी बोली क्यों नहीं
मरते वक़्त भी वह कुछ नहीं बोली
आँखें बस एक बार डोलीं और...
धन्यवाद हरे भाई, शानदार कविताएं पढ़वाने के लिए...
हरे दादा की जय हो.
ReplyDeleteखाली खाली सा लग रहा था वापस सुरु हो गए .
अब पेट भरा भरा सा लग रहा है, क्यूंकि हरे दादा सुरु हो गए.
दादा बेहतरीन रचना है और आपका चयन सही में दिल को छू लेता है.
साधुवाद लीजिये और अरुण कमल जी को धन्यवाद दीजिये.
जय जय भडास
हरे दादा,
ReplyDeleteअरुण कमल जी इतने विभुषणों से विभूषित हैं कि मैं क्या बोलूँ .
बस आनंदित हो गया .
वरुण राय