19.5.08

और वे दुनिया से ऐसे चली जाती थीं जैसे पैदा ही न हुई हों --ब्रजेश्वर मदान

हिंदी के जाने माने फिल्म समीक्षक ब्रजेश्वर मदान की कुछ कविताएं भड़ास पर डालना चाह रहा हूं। उनसे मेरी दो तीन मुलाकातें हैं। उनके बारे में जितना जान सका, उसके आधार पर मैं यही कह सकता हूं कि इस व्यक्ति का जीवन हम लोगों के सामने एक प्रेरणा की तरह है।

दुखों और मुश्किलों के इतने लंबे राह से गुजरे हैं कि दूसरा कोई हो तो टूट जाये, बिखर जाए, हताश हो जाए। पर मदान साहब सब कुछ को शंकर की तरह निगलकर उसी तरह चेतन, शांत, सहज हैं जैसे अपने पूरे जीवन में रहे।

हर पल कुछ रचने वाले, लिखने वाले, सोचने वाले मदान साहब की निजी जिंदगी के इतने ढेर सारे दुखदायी पहलू हैं कि उसके बारे में सोचते हुए भी आंखें भींग जाती हैं। चार बेटों का एक एक कर गुजर जाना। फिर धर्मपत्नी का स्वर्गवासी हो जाना....। अब ब्रजेश्वर मदान साहब अपने घर में नितांत अकेले हैं। इन दिनों राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।

आपको वर्ष 1988 में बेस्ट राइटिंग आन सिनेमा अवार्ड मिला। वो हिंदी के पहले शख्स हैं जिन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ।

20 अगस्त 1944 को जन्मे मदान साहब का कहना है कि उन्होंने नौकरी कभी कभी, चाकरी कभी नहीं की।

उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हैं...
१-लेटर बाक्स (हिंदी अकादमी द्वारा पुरस्कृत)
२-बावजूद
३-सूली पर सूर्यास्त

एक कविता संग्रह प्रेस में है। इसका नाम रखा है पहले पहल। उनकी सिनेमा पर एक किताब है जो काफी चर्चित है। नाम है सिनेमा- नया सिनेमा
पेश है ब्रजेश्वर मदान की एक कविता

अनंतगता पत्नी के नाम
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दस मई को उसे गुजरे
हो गया एक साल
समाचार पत्र में
जा रहा था देने इश्तिहार
स्कैन करवाई उसकी तस्वीर
सोचा कि खाली स्पेस में लिख दूं
जन्मतिथि और मृत्यु की तारीख
लेकिन अपनी जन्मतिथि
खुद उसे कहां पता थी
लड़कियों के जन्म का, मृत्यु का
पंजीयन तब होता ही नहीं था
और वे दुनिया से ऐसे चली जाती थीं जैसे
पैदा ही न हुई हों
उनकी मृत्यु की तारीख
मैं नहीं लिख सका
क्योंकि मेरे लिए तो वह
मरी ही नहीं थी कभी
छोड़ दिया उसकी याद में
विज्ञापन देने का ख्वाब।
(
क्रमशः)

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किवाड़

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दो पल्ले वाले दरवाजे

अब क्यों नहीं दिखते

गांव में होते थे।

खुलते थे सुबह-सुबह

रात में जुड़ जाते थे

पति-पत्नी की तरह।

यहां एक पल्ले वाले हैं दरवाजे

एक अकेला आदमी हूं मैं

इनसे टिकाकर खड़ा होता हूं

पीठ अपनी

क्या जाने इंतजार में किसके

अल्मारियों के दो पल्ले हैं

जैसे मरने के पहले

वह अल्मारी में रख गई हो

अपना घर

दो पल्ले थे खिड़कियों के वैसे तो

पर एक ने पल्ला झाड़ लिया था

मई जून के अंधड़ में

और रह गया था अकेला

वह दूसरा पल्ला

जिससे वह झांकती है

रात को कभी कभी

जब बिजली कौंधती है

उभरता है एक साया

डरकर लिपट जाना चाहता है वो मुझसे

जैसे लिपट जाती थी वो

जब तक तूफान नहीं थमता था

कैसे बताऊं उसे

झूलता हुआ

अंधड़ में

खुद हूं मैं

आज एक

टूटे कब्जे वाला

एक पालिया दरवाजा

खड़कता हुआ लगातार

उनके ही इंतजार में।



(मदान साहब को आप 9871543490 पर फोन करके उनसे संपर्क कर सकते हैं और उनके साथ अपना जुड़ाव प्रकट कर सकते हैं।)

4 comments:

  1. yesvatji, aapne yeh bahut achchha kiya.

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  2. दद्दा,
    मदान साब का मैं भी प्रशंशक रहा हूँ, मगर उनके दर्द से उतना ही महरूम. बेहतरीन कलमकार मदान साब को मेरा सलाम. और आपको ढेरक धन्यवाद.
    जय जय भडास

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  3. बहतरीन कविता है मदन साहब की यशवंत भाई. बहुत ही गहरी सोच.
    वरुण राय

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