21.6.08

शोषण का पोषण करते ये गुरूघंटाल

सभ्य समाज के ढांचे में प्रगतिवादी सोच को जब परंपराओं में कमी नजर आती है तो स्वाभाविक है कि नई सोच रूढ़ियों का विरोध करेगी। इस वैचारिक विरोध से ही समाज की कमियां क्रमशः दूर होती जाती हैं। स्वस्थ समज के लिये जो परंपराएं हानिकारक रहती हैं वे समाप्त हो पाती हैं। ऐसी है बुरी परंपराएं थीं - बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, पशु बलि, बंधुआ मजदूरी,छुआछूत आदि। जब श्रेष्ठ लोगों ने इन बुरी परंपराओं को समझा कि ये समाज के विकास में बाधक हैं तो इनका पुरजोर विरोध किया लेकिन यकीन मानिये कि एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसने इन परंपराओं को अपनी सभ्यता की पहचान बताते हुए इनके पक्ष में हो कर इन्हें जीवंत रखने के लिये बाहुबल, धर्म और कानून आदि के हथियार उठा लिये। एक बारगी सामने से देखने से लगता है कि ये मात्र रूढ़िवादियों और प्रगतिवादियों के बीच असहमति का परिणाम है परंतु अंदर से पर्तें उघाड़ कर देखने पर ये मात्र निहित स्वार्थों की रक्षा के लिये होती लड़ाई थी।
लैंगिक विकलांगों के समाज में भी ठीक ऐसा ही चल रहा है। जब कोई लैंगिक विकलांग गुरू-शिष्य परंपरा से इस समाज में प्रवेश करता है तब गुरू कहलाने वाले शख्स के मन में सत्यतः ऐसा कोई भाव होता ही नहीं है गुरूजी तो बस सुंदर-कमाउ शिष्यों की कमाई पर नजरें गड़ाए रखते हैं ताकि जल्द से जल्द बैठ कर खाने की जुगाड़ हो सके। समय बीतता जाता है और नए नायक, गुरू और चेले इस परंपरा में जुड़ते जाते हैं लेकिन स्वार्थ पर टिकी शोषण की प्रक्रिया निरंतर सदियों से चलती चली आ रही है। हर गुरू का कर्तव्य होता है कि वह अपने जीवन के अनुभवों तथा जानकारियों के आधार पर अपने शिष्यों को खुद से दो कदम आगे बढ़कर बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा दे। यही गुरू-शिष्य परंपरा की सार्थकता है। किन्तु लैंगिक विकलांगों के परंपरागत समाज में गुरू भी भीख ही मांगते थे या देहव्यापार करते व नाच-गाकर बधाई देते और शिष्य भी वही करते रहे। गुरू भी समाज की मुख्यधारा से बाहर बहते रहे और शिष्यों को भी रहस्यमय परंपराओं की आड़ में यही सब कराते रहे। किसी गुरू ने अपने शिष्यों को आजीविका के लिये किसी अन्य कार्य के लिये न तो प्रेरित करा और न ही यह प्रेरणा दी कि बेटा मैं तो न पढ़ सकी कम से कम तुम तो पढ़ सको इसलिये मैं तुम्हारे लिये घर पर ही ट्यूटर लगा देती हूं? किसी गुरू ने समाज द्वारा किये गये बहिष्कार के खिलाफ़ आवाज को इतना बुलंद क्यों नहीं किया कि कानून उस आवाज को सुन सकता? खुद तो जाहिल बने रहे और नए आने वाले बच्चों को भी जाहिल-बेहया बनाए रखा। कुछ जगहों से यदा-कदा आपको सूचनाएं मिलती होंगी कि अमुक शहर या गांव में फलां लैंगिक विकलांग ने अपने धन से स्कूल खोला है लेकिन क्या आज तक किसी ने देखा है कि उस स्कूल में कोई लैंगिक विकलांग बच्चा पढ़ रहा हो अपनी सही पहचान के साथ? अरे हिन्दुओं ने सरस्वती विद्या मंदिर बना लिये मुस्लिमों ने अंजुमन इस्लाम बना डाले अपने अपने समुदाय के बच्चों को पढा़-लिखा कर उनकी पहचान समाज में ऊंची उठाने के लिये लेकिन किसी लैंगिक विकलांग गुरू ने ऐसा हरगिज नहीं करा कि जो पीड़ा मैंने झेली है वो इन बच्चों को न उठाने दूंगी, इन्हें पढा़-लिखा कर इस काबिल बनाऊंगी कि आने वाले समय में ये अपने जायज़ हक़ के लिये सही तरीके से मांग कर सकें। ये स्कूल वगैरह खोलना मात्र प्रसिद्धि पाने के टोटके रहते हैं। अगर सचमुच गुरू पद के उच्च आदर्श को पालने के इच्छुक ये गुरू लोग होते तो समाज में चेतना लाने का प्रयास करते कि अपने बच्चों को किसी हिजड़ो की टोली को मत दो और अगर कोई जबरदस्ती करता है तो कानून का सहारा लेकर अपहरण का मामला दर्ज करवाओ, क्यों कोई गुरू किसी NGO को इस बात के लिये प्रेरित नहीं करता कि मेरे शिष्यों को प्रौढ़ शिक्षाकेंद्र ले जाओ .......... । ये गुरू बने हुए गुरूघंटाल जानते हैं कि अगर उन्होंने ऐसा करा तब तो अनिर्णीत लिंग के आधार पर जीवित इनका थोथा,खोखला और शोषण पर टिका समाज महज दो पीढ़ियों मे ही समाज की मुख्यधारा में विलीन हो कर लुप्त हो जाएगा और फिर इन्हें खाने के लिये मेहनत-मजदूरी या कोई रोजगार करना पड़ेगा जो कि ये गुरूघंटाल लोग नहीं चाहते यही कारण है कि ये लोग शोषण का पोषण कर उसे जीवंत बनाए हुए हैं। मुझे पता है कि मैं जिस बात की शुरुआत कर रही हूं उसका सुखद अंत देखने के लिये जीवित न रहूं लेकिन मेरे भाई जो कि सच्चे अर्थों में गुरूपद के अधिकारी हैं उनकी प्रेरणा से इस नए वैचारिक धरातल पर इन तथ्यों को ला रही हूं।
जय भड़ास

1 comment:

  1. manishaji sahi kaha aapne jab tak log in gurughantaalo ka purjoor virodh nahi karenge ,apne laigik viklaang baccho ko inke haato me sopte rahenge tabtak kuch na ho sakega .agar laigik viklaango ko samaj ki mukhya dhaara se jodna hai to inka virodh karna hi hoga.hum sabhi aapke saath hai.

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