कई दिनों से बिलकुल चुपचुप, गुमसुम रहते-रहते आज जब गुनगुनाया तो पूरी लाइनें याद नहीं आ रहीं थीं। काफी परेशान रहा। घर-बाहर के काम करता रहा, आफिस के काम निपटाता रहा पर जुबां से वो लाइनें और धुन उतर न रहीं थीं। आखिर गूगल पर हिंद में सर्च मारा....वो रुला कर....। उम्मीद न थी कि रिजल्ट आयेगा, पर धन्य हो हिंदी और अपने हिंदी वाले। नवाज़ साहब की इस गजल को एक ब्लागर ने अपने ब्लाग पर सजा रखा था। वो ब्लाग है संकलन नाम से। कई अशुद्धियां थीं। ठीक करने की कोशिश की है। वैसे, ये ब्लाग भी अभी नया ही है। ब्लागर की प्रोफाइल भी नहीं है, पर कोशिश अच्छी है। वाकई, मुझे आज अपने हिंदी ब्लागरों पर गर्व है, दिल से कुछ ढूंढा और मिल गया। लीजिए, मेरे अरमान तो पूरे हो गए, मैं अभी गुनगुनाते हुए ही इस पोस्ट को डाल रहा हूं। आप भी आनंद लीजिए.....
वो रुला कर हँस न पाया देर तक
जब मैं रो कर मुस्कुराया देर तक
भूलना चाहा कभी उसको अगर
और भी वो याद आया देर तक
ख़ुद ब ख़ुद बे-साख्ता मैं हंस पड़ा
उसने इस दर्जा रुलाया देर तक
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
गुनगुनाता जा रहा था इक फक़ीर
धूप रहती है न छाया देर तक
कल अन्धेरी रात में मेरी तरह
एक जुगनू जगमगाया देर तक
-नवाज़ देवबंदी
साभारः संकलन
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