पिछले दिनों हरे प्रकाश जी के विचार भड़ास पर पढ़े जिसमे भिखारी ठाकुर की कविता 'रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे 'को उधृत करते हुए उन्होंने भिखारी ठाकुर को याद किया था तब एक रेख सी बनी थी दिमाग में भिखारी ठाकुर की , जो एक भोजपुरी कवि की थी लेकिन जब संजीव का उपन्यास 'सूत्रधार ' को पढ़ रहा हूँ तो मन जैसे भिखारी ठाकुर के छपरा में घूम रहा है । जहाँ 'विदेसिया 'की गूंज है 'नाइ बहार' है 'भाई वियोग ' सूत्रधार पढ़ने के बाद पता चला की भिखारी ठाकुर की सख्शियत लोक और संस्कृति को अपने नाट्य रगों से सीचने वाले शख्स की रही है मामूली हज्जाम से नत सम्राट की इस रंग यात्रा में जातिगत घृणा के जिन कडुवे अनुभवों से भिखारी ठाकुर को गुजरना पड़ा वे अंत तक शूल की तरह उनकी छाती में गड़ते रहे और सूत्रधार को पढने वाले पाठक के ह्रदय में भी यह सच है की विज्ञानं ने हमारे कठिन जीवन को सरल बनाया और बडे नाजुक मौको पर अपना हाथ बढा कर मानवता की पीड़ा को दूर किया लेकिन यह भी सच है की विज्ञानं की देन आधुनिक प्रचार माध्यमो ने हमारे मन के उन कोनो को बंजर भी बनाया है जिनमे तीज त्यौहार गीत गवनई उमंग और उल्लास के साथ लहलहाते रहें हैं । गाँव के खपरैल और चूल्हे चौके से उठने वाले गीत तो ख़त्म हो ही रहे हैं लोक संस्कृति की छौंक लिए नाच नौटंकी भी इन माध्यमो ने लील लिए ऐसे में भिखारी ठाकुर को याद करना तपती हुई धूप में एक बादलके टुकडे जैसा है जो चंद लम्हों के लिए ही सही राहत ज़रूर देता है ।
दीपेन्द्र
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