१- साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाला 'प्रकाश जैन पुरस्कार' अकादेमी द्वारा बंद कर दिया गया है। हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक साहित्यिक पत्रिका 'लहर' के सम्पादक स्वप्रकाश जैन की स्मृति के साथ यह निंदनीय और कुत्सित प्रयास है, जिसकी प्रदेश के तमाम लेखकों ने निंदा की है।
२- भारतीय भाषाओं से प्रदेश के लेखकों द्वारा किए जाने वाले अनुवाद पर दिया जाने वाला 'अन्तर-प्रांतीय बंधुत्व पुरस्कार' भी अकादेमी ने बंद कर दिया है।
३- सिन्धी और हिन्दी के कथाकार भगवान अटलानी तथा एक अनाम लेखिका सरला अग्रवाल से कुछ लाख रुपये लेकर अकादेमी ने उनके नाम पर दो नए पुरस्कार शुरू किए हैं।
४- 'गीता प्रेस' गोरखपुर वाले स्व हनुमान प्रसाद पोद्दार और स्व डॉ लक्ष्मी मल सिंघवी के नाम पर दो नए सम्मान प्रारम्भ किए हैं। ये नए सम्मान अकादेमी द्वारा दिए जाने वाले 'साहित्य मनीषी' सम्मान के अतिरिक्त होंगे, इनकी राशि इक्यावन हज़ार रुपये है। सिंघवी जी के नाम पर सम्मान 'अंतर्राष्ट्रीय' स्तर का होगा।
जयपुर से दैनिक भास्कर में सबसे पहले इस लेखक ने अकादेमी के निर्णयों की आलोचना करते हुए लेख लिखा था जो अब लगभग एक महीने से बहस का रूप ले चुका है। सिवाय छिटपुट लेखकों के सभी लेखकों ने इन निर्णयों की भर्त्सना की है। आज 'हिंदुस्तान टाईम्स' के जयपुर परिशिष्ट में एक और लेखक ने इस विवाद पर प्रतिक्रिया दी है। इसके जवाब में एक लेखक ने अपना नाम ना उजागर करने की शर्त पर अपनी टिपण्णी भेजी है, उसे यहाँ जस का तस् दे रहे हैं। उम्मीद है गंभीर, लेखक, पत्रकार और संस्कृतिकर्मी राजस्थान साहित्य अकादेमी की इस गैर साहित्यिक कारगुजारी पर अपनी भावनाएं व्यक्त करेंगे। तो लीजिये पेश है, वो टिपण्णी...
अंग्रेज़ी अखबार आम तौर पर हिन्दी और हिन्दी साहित्य सम्बन्धी खबरों वगैरह से दूरी ही बनाए रखते हैं. उन्हें शायद लगता हो कि हिन्दी का किसी भी तरह का प्रवेश उनके आभिजात्य को क्षति पहुंचाएगा. लेकिन कभी-कभी वे अपनी नीति में कुछ शिथिलता बरतते हुए हिन्दी विषयक सामग्री भी दे देते हैं. आज(19 जुलाई, 2008) हिन्दुस्तान टाइम्स ने अपने जयपुर परिशिष्ट एच टी जयपुर लाइव में ऐसा ही किया है. इसने अपने तीसरे पन्ने पर एक आलेख छापा है जिसका शीर्षक है ‘लिटरेरी राउ क्लाउड्स राजस्थान साहित्य अकादमी’ यानि राजस्थान साहित्य अकादमी पर छाया साहित्यिक विवाद. इसके लेखक कोई डॉ मनोज प्रभाकर हैं जिनके परिचय में कहा गया है कि वे दो दशकों तक राजस्थान साहित्य अकादमी की सरस्वती सभा और संचालिका के सदस्य रहे हैं. आलेख के साथ जो चित्र छपा है वह एक अन्य सुपरिचित लेखक का है.
अब अंग्रेज़ी अखबार जब हिन्दी की खोज खबर लेते हैं तो घपला तो होना ही है. इसलिए कि ज़्यादातर अंग्रेज़ी अखबार वाले हिन्दी लेखकों से अपरिचित हैं.
लेखक (जो भी हो, नाम वाला या चित्र वाला) ने इस आलेख में राजस्थान में चल रहे साहित्यिक विवाद का परिचय देते हुए दो तीन गौर-तलब बातें कही हैं. उन्होंने एक तो यह कहा है कि राजस्थान साहित्य अकादमी साहित्यिक पत्रकारिता के लिए जो पुरस्कार दे रही थी वह केवल पत्रिकाओं तक ही सीमित था. उनका कहना है कि यह पुरस्कार उन लोगों को भी दिया जाना चाहिए था जिन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता के विकास में योगदान दिया. यह लिखते हुए निश्चय ही उनके जेह्न में कुछ नाम होंगे, जिन्हें यह पुरस्कार मिल सकता था.
लहर की चर्चा करते हुए इन्होंने कहा है कि इस पत्रिका ने साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने लिए जगह बनाई, लेकिन कुछ ‘सायकोफैण्ट्स’ (आलेख में यही शब्द प्रयुक्त किया गया है) जिस तरह इस पत्रिका का गुणानुवाद कर रहे हैं, वह उचित नहीं है. निश्चय ही लेखक का इशारा हिन्दी समाचर पत्रों में इधर छपे अनेक आलेखों, वक्तव्यों और टिप्पणियों की तरफ है जिनमें लहर के साहित्यिक योगदान को स्मरण करते हुए इसके सम्पादक प्रकाश जैन के नाम पर दिए जा रहे पुरस्कार को बन्द करने की भर्सना की गई थी. लेख में यह नहीं बताया गया है कि साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में जगह बनाने वाली पत्रिका (या उसके सम्पादक) का गुणानुवाद कैसे किया जाना चाहिए?
लेखक ने, घनघोर चालाकी का परिचय देते हुए कहा है कि अगर सहित्यिक पत्रकारिता के लिए कोई पुरस्कार दिया ही जाना है तो उसका नाम बदलकर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, राम निवास शर्मा या हरिभाउ उपाध्याय पुरस्कार किया जाना चाहिए. लगता है कि इस लेखक को प्रकाश जैन के नाम से कोई एलर्जी है, वर्ना यह तर्क पद्धति नहीं अपनाई जाती. भाई आप कह चुके हैं कि लहर ने अपने लिए जगह बनाई थी, तो फिर यह नया सुझाव क्यों? अगर नाम बदलना इतना ही प्रिय है तो बेहतर होता कि अकादमी के सारे ही पुरस्कारों के नाम बदलने के सुझाव दे दिए गए होते. लेकिन, वह तो लेखक का अभिप्रेत है नहीं.
हिडन एजेण्डा इसी को कहते हैं.
अकादमी ने दो नए पुरस्कार निजी राशि से शुरू किए हैं. उनकी चर्चा करते हुए यहां बताया गया है कि एक पुरस्कार जयपुर के लेखक भगवान अटलानी की तरफ से और दूसरा ‘वन सरला अग्रवाल ऑफ कोटा’ (कोटा की किन्हीं सरला अग्रवाल) की तरफ से दिया जाना तै हुआ है. ज़ाहिर है, दूसरे नाम को लेखक कहने में खुद इस टिप्पणीकार को भी संकोच महसूस हुआ है, वर्ना दोनों को एक साथ लेखक कहा जा सकता था. दूसरे नाम के साथ ‘वन’ का प्रयोग उनकी लेखकीय पहचान न होना द्योतित करता है. टिप्पणीकार ने पुरस्कारों के क्षेत्र में इस निजी सहभागिता के सन्दर्भ में कहा है कि ‘ अ मेजोरिटी ऑफ आर्टिस्ट्स एण्डोर्स दिस डिसीसन’. यह समझना मुश्क़िल है कि अगर बहुसंख्यक कलाकार इस निर्णय का समर्थन कर ही रहे हैं तो टिप्पणीकार को इसकी वक़ालत करने की क्या ज़रूरत आन पडी?
अंत में टिप्पणीकर ने एक बडी भली सलाह दी है, कि इस विवाद को ज़्यादा नहीं खींचा जाए. कोई उनसे पूछे कि क्यों? अगर कुछ गलत है तो उसे गलत क्यों न कहा जाए और उसका विरोध क्यों न किया जाए? टिप्पणीकार ने अकादमी को एक सदाशयतापूर्ण सलाह दी है कि वह इस विवाद को सुलझाने के लिए कुछ ‘नोलेजेबल’ लेखकों से अनुरोध करे कि वे अकादमी की संचालिका के बैठक में उपस्थित होकर चर्चा को आगे बढाएं और विवाद का हल ढूंढे. कहीं इसकी व्यंजना यह तो नहीं कि अभी अकादमी की संचालिका में जो हैं, वे नोलेजेबल नहीं हैं. समझने वालों को समझने में देर नहीं लगनी चाहिए कि जब यह टिप्पणीकार ‘नोलेजेबल’ लेखक की बात कर रहा है तो वह उन्हें ज़्यादा दूर जाकर तलाश करने की जेहमत नहीं देना चाहेगा. जब इतना नोलेजेबल लेखक खुद कह रहा है तो... और हां, अगर अकादमी साहित्यिक पत्रकारित में योगदान देने के लिए भी कोई पुरस्कार देना चाहे तो उसे ज़्यादा सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है, वर्ना हम कहेंगे कि घर में छोरा और गांव में ढिंढोरा!
---नाम में क्या रखा है?
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