1.7.08
था लूटा जिन्हे भी, आकर खुशी ने
हमें फ़ासलों को बढ़ाना नहीं था
कभी प्यार को आज़माना नहीं था
न ही हाथ पकड़ा न कोई गुज़ारिश
ठहरने का कोई बहाना नहीं था
ये सपने वसल के, खुश्बू बदन की
जो जागी तो तेरा ठिकाना नहीं था
था लूटा जिन्हे भी, आकर खुशी ने
जुदा उनसे मेरा , फसाना नहीं था
न दामन पर उसके कोई दाग आए
लहू आंसूओं में बहाना नहीं था
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तेरे हाथों से छूटी जो, मैं मिट्टी से हम-वार हुई
हँसती - खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई
ज़ख़्मों पर मरहम देने को,जब उसने हाथ बढ़ाया तो
घायल थी मैं ना उठ पाई, वो हमदरदी तलवार हुई
ये गरम फ़ज़ा झुलसाएगी, पाँवों में छाले लाएगी
देती थी साया अब तक जो, दूर वही दीवार हुई
लम्हों की बातों में जिसने,सदियां साथ निभाई थी
ये कुरबत फिर मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल पर भार हुई
अब तो हैं खामोश ये लब, बस सन्नाटा है ज़हन में
तन्हाई इस महफ़िल की , महसूस मुझे इस बार हुई
साथ गुज़ारे लम्हे अब, बन फूल महकते दामन में
करती शुकराना उन लब का , जिससे “श्रद्धा” इक प्यार हुई
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