7.8.08
1998 में विवाद,2002 में बवाल..2008 में आग!
आलिशान बिल्डिंग में लाखों रूपये कीमत के स्टेज पर कीमती चमकीले कपडों में सजकर बैठे डेरा सच्चा सोदा के बाबा गुरमीत अपने लाखों अनुयायियों को धर्म,शान्ति और अहिंसा का प्रेम पाठ न जाने ऐसे कोन से तरीके से पढाते हैं कि वे अनुयायी सड़क पर आते ही हाथों में पत्थर उठा लेते हैं, बंदूकें चलाते हैं और हर उस शख्स का खून बहा देते हैं जो भी डेरा की विचारधारा से अलग बात करता है। १९९८ से लेकर अब २००८ तक के इन १० सालों के छोटे से अरसे में डेरा सच्चा सौदा विवाद से लेकर बवाल मचाने और अब चारों और उठती आग की लपटों के लिए जिम्मेदार रहा है। इस अरसे में डेरा प्रमुख के दामन पर साध्वियों से बलात्कार के आरोप के दाग लगे हैं, पत्रकार के कत्ल का जिम्मेदार उन्हें माना गया है और सिखों की भावनाओं से खेलने के शोंक ने उन्हें सिखों का दुश्मन बना दिया...इसके बाद तो एक के बाद एक ऐसे विवाद हुए जिन्होंने हरियाणा और पंजाब ही नही बल्कि पूरे देश को झुलसा दिया। चाहे मुंबई के मुलुंड इलाके में डेरा के बाबा के बोडिगार्ड की गोली से सिख युवक की मौत का मामला हो या डेरा अनुयायियों द्वारा की जाने वाली नामचर्चा के विरोध के दौरान होने वाली हिंसा, सभी मामलों में जिम्मेदार सिख हैं या डेरा अनुयायी यह एक अलग मसला है लेकिन जो हो रहा है उसे रोकने और थामने के लिए कहीं से भी किसी भी तरह की कोई कोशिश न होना साबित करता ही की विवाद सिर्फ़ उतना ही नही है जितना नज़र आ रहा है। धर्म की आबरू और धार्मिक स्वतंत्रता के हक़ की बात के बीच कुछ ऐसी वजहें पैदा कर दी गई हैं कि मसला विवाद,बवाल से बढ़कर इतना आगे चला गया है कि खुलेआम जान लेने और देने की बात की दहाड़ मरी जाने लगी है। अगर आज इस बात का जिक्र किया जा रहा है की सिख अपने धर्म और राजनीति का घालमेल कर रहे हैं तो २००७ में पंजाब विधानसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा की तरफ़ से कांग्रेस के पक्ष में वोट डालने का फरमान जारी किया जाना क्या खालिस धर्म की बात थी ? रही बात सिखों की तो उनकी राजनीति धर्म के इर्द-गिर्द ही घूमती है, इससे वे ख़ुद इनकार भी नही करते पर,डेरा अपने नये किस्म के इंसान धर्म की हिमायत krte हुए जितना हिंसक हुआ है, शायद उसी की वजह से आज वो देश का सबसे विवादास्पद डेरा बन गया है। सबसे अहम् सवाल ये है की डेरा जिन अनुयायियों के बारे में अक्सर कहता है की वे लाखों लोग डेरा प्रमुख के लिए जान ले भी सकते हैं और दे भी सकते हैं तो वे हो अनुयायी डेरा प्रमुख के शान्ति-अहिंसा के पाठ को मानने को तेयार क्यों नही होते? इसका सीधा मतलब क्या ये नही निकलता की डेरा प्रमुख अपने अनुयायियों द्वारा की जाने वाली हिंसक गतिविधियों को रोकने के प्रति बिल्कुल भी गंभीर नही हैं! १९९८ से लेकर अब २००८ तक के १० सालों के अरसे पर निगाह डालें तो साफ़ होता है की डेरा अनुयायियों ने हमेशा अपनी बात बुलेट के जरिये मनवाने की कोशिश की है। और जब-जब उनकी बात नही मानी गई उन्होंने उसी बुलेट को कभी पत्रकार के सीने में उतार दिया तो कभी अपने पूर्व अनुयायी की जुबान को हमेशा के लिए खामोश कर दिया। १९९८ में सिरसा के बेगू गाँव में डेरे की जीप के नीचे आकर एक बालिका की मौत पर पर्दा डालने के लिए डेरा अनुयायियों ने हथियारों से लेस होकर गाँव में दहशत मचाई। इस बाबत जब सिरसा के संध्या दैनिक रामा टाइम्स ने ख़बर छापी तो डेरा अनुयायियों ने अखबार के दफ्तर में जा कर पत्रकारों को धमकाया। २००२ में डेरा की एक साध्वी ने बलात्कार का आरोप डेरा प्रमुख पर लगा कर प्रधानमंत्री को ख़त लिखा तो इस मसले पर समीक्षात्मक रिपोर्ट छपने से बोखलाए डेरा अनुयायियों ने फतेहाबाद के सांध्य दैनिक लेखा-जोखा में तोड़फोड़ कर डाली। और अब २००८ में जो सिथिति बनी है, उसके लिए सबसे ज्यादा वो व्यवस्था दोषी है जो हर बार, हर वारदात, हर विवाद और हर बवाल के बाद भी खामोश रही। डेरा अनुयायी जो चाहते हैं वो कर रहे हैं, सिखों को डेरा प्रमुख से बदला लेने के लिए तलवार लहराना वाजिब लग रहा तो वो लहरा रहे हैं...लेकिन सवाल ये है की एक तरफ़ से चलती गोलियों और दूसरी तरफ़ से लहराती तलवारों के बीच आम आदमी का लोकतंत्र कहाँ है? डेरा की भीड़ कभी अखबार के दफ्तर को तोड़ देती है तो कभी पत्रकार का सीना गोलियों से छलनी कर देती है, सिख कभी नामचर्चा रुकवाने के लिए हिंसा करते हैं तो कभी दुकानों को आग लगा देते हैं...लेकिन सवाल ये है की जो डेरा अनुयायी नही है और सिख भी नही है, उसकी जान की हिफाजत का जिम्मा किसका है? दंगों में मरने वालों के जिस्म पर कभी भी किसी ने धर्म का लेबल देखा है? बहराल, धर्म और राजनीति के इस घालमेल से उपजा विवाद कैसे थमेगा इस पर कभी तो सोचना ही होगा। कुछेक दिनों के फर्क में विवाद की भेंट चद्ती इंसानी जानों की तादाद ना बढे, इसके लिए जरूरी है की डेरा शान्ति-अहिंसा की अपने मुंह से जो हिमायत करता है उसे अमलीजामा भी पहनाये, जरा से उकसावे पर जान लेने और देने को तेयार रहने वाले अनुयायी आध्यात्म का रास्ता छोड़ कर तालिबान बनने पर क्यों आमादा हैं? यकीनन, जिस दिन डेरा गोली की भाषा में बात करना बंद कर देगा, उस दिन वो लाखों लोगों के विश्वास पर खरा भी उतरेगा और उससे ताल्लुक रखता हर विवाद भी थम जाएगा।
सचमुच अगर इन लोगों को राजनैतिक संरक्षण नहीं है तो फिर क्या देश का कानून क्या इतना लाचार है कि चंद बंदूकधारियों के आगे षंढ हो कर रिरियाने लगता है?????
ReplyDeleteसेठी साहब,
ReplyDeleteआप से पहले मेरी भी कमोबेश यही राय थी डेरा के बारे में परन्तु जैसे बिहार के बारे में आम लोगों की राय सिर्फ़ मीडिया पर चुने हुए ख़बर देख कर होती है वैसे ही डेरा के बारे में भी है, आपकी बातें सिर्फ़ एक पहलु को बताती है की डेरा के लोग आततायी हैं परन्तु आज जब में डेरा में हूँ हालाँकि ना ही मैं डेरा का अनुयायी हूँ और ना ही राम रहीम का भक्त मगर वास्तविकता जानने के बाद कह सकता हूँ की हमें अपनी राय सिर्फ़ देखि और पढ़ी बैटन पर नही अपितु जानने के बाद रखने चाहिए, डेरा से सम्बन्धी खुली राय मैं रखूंगा और बहूत सरे जिज्ञासा को शांत करूँगा.
जय जय भड़ास