27.1.09

लोकतंत्र और लोकप्रियता



लखनऊ शहर की दीवारों पर आजकल एक पोस्टर हर जगह देखा जा सकता है जिसमे कहा गया है कि 'हमें ak-४७ नही विकास चाहिए 'निश्चित तौर पर ये समाजवादी पार्टी के भावी उम्मीदवार संजय दत्त के ख़िलाफ़ है जिन्होंने ख़ुद चुनाव न लड़ने कि स्थिति में अपनी पत्नी मान्यता के मैदान में उतरने की बात भी कही है फिल्मी सित्तारों की राजनीति में दिलचस्पी कोई नई बात नही है ग्लेमर के आदि बन चुके इन सितारों के लिए राजनीति ,उसी ग्लेमर का एक हिस्सा और सुर्खियों में बने रहने का कामयाब नुस्खा है ,वहीँ राजनैतिक पार्टियों के लिए ये सितारे विरोधियों के चुनावी मैदान में पैर उखाड़ने का अचूक अस्त्र है यहाँ बात संजय दत्त या फ़िर अन्य किसी सितारे की उम्मीदवारी की नही है ,और मैं व्यक्तिगत तौर पर यह कह सकता हूँ ,कि संजय घर के बिगडैल हो सकते हैं लेकिन किसी भी कीमत पर देशद्रोही नही हो सकते ,हाँ कानूनन उन पर अपराध जरुर सिद्ध होता है सवाल सिर्फ़ यह है की क्या किसी व्यक्ति की लोकप्रियता उसके राजनैतिक रूप से योग्य होने का परिमापक हो सकती है ?,क्या हर लोकप्रिय व्यक्ति को लोकतंत्र के रक्षक दल में शामिल कर लेना चाहिए ?मेरा मानना है कि भारत में लोकप्रिय कोई भी हो सकता है ,अगर लोकप्रिय होने का शोर्ट कट अपनाना चाहता हो ,तो ख़ुद को विवादित कर लो या विवाद में रहो जिस देश में अतीक अहमद,मुख्तार अंसारी,अरुण गवली ,पप्पू यादव ,शहाबुद्दीन और राज ठाकरे जैसे कुख्यात संसद व विधानसभाओं में हो ,वहां निश्चित तौर पर लोकप्रिय होना कोई बड़ी बात नही यह दुर्भाग्यपूर्ण है हर हिन्दुस्तानी एक एंग्रीमेन ढूंढ़ रहा है ,कभी वो एंग्रीमेनकानून के लिए सिरदर्द बन चुके माफिया डान बन जाते हैं तो कभी गुंडई के बल पर अधिकारों को दिलाने का दावा करने वाला कोई राज ठाकरे| फिल्मी सितारों में भी जनता उसी एंग्रीमेन को ढूंढ़ती है ,रुपहले परदे में विलेन के दांत खट्टे करता हुआ हीरो उसके वर्चुअल वर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है निश्चित तौर पर ये खोज राजनैतिक प्रदुषण की उब से पैदा हुई कुंठा का नतीजा है समाज का लोकप्रिय तबका इस कुंठा को भली भाति इस्तेमाल करता है ,वे आसानी से आम जनता पर शासन करने का अधिकार हासिल करता है ,और ख़ुद को पुनः स्थापित कर लेता है
अगर भारतीय राजनीति में फिल्मी सितारों के सफर पर निगाह डाली जाए ,तो शायद जयललिता को छोड़कर कोई एक भी अभिनेता या अभिनेत्री होगा जिन्होंने अपनी राजनैतिक जीवन की यात्रा में जनकल्याण के दृष्टीकोण से कुछ ख़ास किया हो,कमोवेश यही हाल उन अपराधियों का है जो भीड़ को बरगलाकर सत्ता -प्रतिसत्ता का हिस्सा बने हुए हैं ये बात दीगर है कि अधिकाँश फिल्मी सितारों को राजनैतिक पार्टिया अपने मनचाहे अंदाज में जनता के सामने परोस देती हैं किसी को किसी प्रदेश की बहु बना दिया जाता है तो किसी को किसी क्षेत्र का बेटा बेटा रामपुर की सांसद जयाप्रदा के बारे में वहां के एक शिक्षक कहते हैं' वो समाजवादी पार्टी की सांसद हैं हमारी नही ,चुनाव के बाद हमने उन्हें नही देखा अब हम अपने हाथों से अपना मुँह पिट रहे हैं लेकिन यह भी सच है अगली बार भी वही चुनाव जीतेंगी ',यही हाल धर्मेन्द्र,गोविंदा और विनोद खन्ना का है ,सिनेमा के पर्दे पर दुश्मनों को ललकारने वाले ये हीरो वास्तविक जीवन में अपने होठों पर ताला लगा लेते हैं ,पूर्व सांसद अमिताभ बोलते हैं तो डरते हैं कि उनके शब्द कहीं राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय न बन जाएँ ,और कोई बखेडा न खड़ा हो जाए ,हाँ उन्हें समाजवादी पार्टी का खुलेआम प्रचार करने और पत्नी जया को सांसद के रूप में देखने पर कोई ऐतराज नही है ये अभिनेता जब अपनी लोकप्रियता को चुनावों के दौरान बड़ी बड़ी होडिंगो पर लिखे 'यु पी में हैं दम क्यूंकि जुर्म यहाँ हैं कम 'जैसे नारों के रूप में पिछले विधानसभा चुनावों में भजाता है तो ये भूखी नंगी और वैचारिक कोमा में जी रही जनता को जूता मारने जैसा होता है अब जबकि राखी सावंत,मल्लिका आदि भी राजनीति में आना चाहती हैं तो सोच लें की बुनियादी समस्याओं से हर पल जूझ रहे आदमी का क्या होगा ,संविधान बनने वालों ने भी लोकतंत्र को लोकप्रियता का गुलाम न बनने देने के लिए कुछ नही सोचा |
राजनीती के अपराधीकरण को लेकर चर्चाएँ लगातार हो रही हैं ,लेकिन राजनीति का अपराधियों की और एवं अपराधियों का राजनीति की और विसरण बदस्तूर जारी है मीडिया व समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इसके लिए राजनैतिक पार्टियों को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहरा देता है ,लेकिन कभी भी आम जनता को कटघरे मैं खड़ा करने का साहस नही करता ,जबकि सत्यता यह है की सबसे पहले हम ख़ुद जिम्मेदार हैं हम हर अपराधी में एक हीरो ढूंढ़ते है अबू सलेम और बृजेश सिंह जैसे इंटरनेशनल माफिया सरगनाओं की आगामी चुनाव में उम्मीदवारी लगभग तय है ,अगर न्यायालय ने अड़ंगा नही लगाया तो ये लोग कल को चुनाव जीतेंगे और लोकतंत्र का सीना कुचल कर रख देंगे ऐसा इसलिए भी है कि लोकतंत्र के लंबरदारों ने आजादी के बाद से ही आम भारतीय की सोच को पंगु बना दिया है ,हम आज भी शर्मनाक राजनैतिक pratikon के गुलाम हैं ,जिनके बिना हम ख़ुद को अभिव्यक्त भी नही कर पाते हम वहीँ सोचते हैं जो वे सोचने को कहते हैं हम वही देखते हैं जो वे दिखाते हैं ऐसे में अगर कोई बाहुबली ,बलात्कारी या फ़िर सिरफिरे किस्म का गुंडा ,संसद और विधान सभाओं में पहुँचा जाता है तो क्या ग़लत है ,वहां पहुँचा कर वो अपने अपराधों को सफ़ेद कपडों से ढक लेता है और देश में निति निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है एक मित्र कहते हैं की इन लोकप्रिय चेहरों का केवल एक उपयोग हो सकता है की वो किसी भी आइडोलोजी को जन जन तक पहुंचाएं ,क्यूंकि जो वो कहेंगे लोग आसानी सा आत्मसात कर लेंगे ,लेकिन अफ़सोस वो इसमे भी असफल रहे हैं ,अभिनेताओं को फुरसत नही होती ,अपराधियों की अपनी आइडोलोजी है |

2 comments:

  1. भाई आवेश की बात से सहमत होकर भी इस बारे मे कुछ किया जा सकता है मुझे संदेह है. कारण ये कि हमारे यहाँ राजनीती के शिखर पर पहुचने के लिए बहुत से आसान रास्ते हैं जो सिर्फ चाँद लोगो या उनके किस्म के लिए खुले हैं. आपने जे ललिता को अपवाद बताया. मुझे लगता है सुनील दत्त इसकी अपवाद थे. उन्होंने पहली बार संसद के लिए चुने जाने से २२ साल पहले अपने सामजिक सरोकार जग जाहिर किये. और उन्ही मूल्यों के लिए अंत तक लड़ते रहे. लोकप्रिय व्यक्ति के नेता बन्ने मे हमें कोई आपति नहीं होनी चाहिए लेकिन नेता तब बने जब उनके सामाजिक कार्य निरंतरता ले लें. सीधे उच्च मंच पर बैठना मुझे अनैतिकता लगती है. अमिताभ जब लोकसभा चुनाब लड़ने की अनुमति मांगने पिताजी की पास पहुचे तो उन्होंने सीधे अनुमति नहीं दी कहा सिनेमा मे तुम पहले नंबर पर हो. राजनीति मे १०० वे नंबर के लिए तैयार होकर जाना. ये फैसला जनता को करना है कि वो राजनीति मे उनके योग्यता को कैसे आंकती है. जनता को समझना होगा कि किसे राजनीती मे हाथो पे लेना है. उम्मीद कम है लेकिन प्रयास तो करना ही होगा. http://hariprasadsharma.blogspot.com/

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