28.1.09

सूना जीवन

सूना जीवन
रोज़ के मानिंद आज फ़िर पसरा सन्नाटा है
सुनाई देता है
बस सन्नाटे का अट्टाहास
दिखाई देता है
तो बस गहन अन्धकार
खिलखिला कर हँसी थी कभी किसी
सदी
मेरा भी घर था कभी
जहाँ एकांत ढूंढे नहीं मिलता था
खुशियों का सैलाब बहा करता था
घर वही है
समाज लोग वही हैं
पर सामाजिक बंधन टूट गए लगतें हैं
रिश्ते स्वार्थ सिद्ध हो गए हैं
फ़िर भी इक आस ने अब तलक जीवन ज्योत जलाए रखी है
कि कभी तो संवरेगा मेरा सूना जीवन
लौट कर आएगी खुशी मेरे घर आँगन

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