12.2.09

और एक दिन बीत गया

और एक दिन बीत गया
एक और दिन बीत गया,
पिछले कई सालों की तरह ही,
एक और दिन रीत गया.

रोज़ सुबह होती है उस पल,
पूरा दिन खंजर दिखला कर,
पूछा करता है की मुझसे की,
"बोलो क्या करना है मेरा".
पिछले कई सालों से यूंही,
पूछ रहा है मुझसे यूंही.
और मै अपने शब्दों में,
छिप जाता हूं,
जाले बुनता हूं हर्फ़ों के,
किसी बहाने टालूं उसको.


जाने कितने लोग कई बार,
बांध चुके है मेरी खातिर,
पीपल की शाखों पे धागे.
होंठों पर कुछ हर्फ़ दुआ के,
दिल मे इक तस्वीर खुदा की.

रोज सुबह एक खत आता है,
आसमान से मेरी खातिर,
गम और खामोशी से भरा सा.
इक इक अक्षर उन खतों के,
पसरे पडे है मेरे हर सूं,
हिलना-डुलना भी मुश्किल है.

और इक बार खुदा भी आया,
ऐश्वर्य की सीढी चढकर,
कानों मे कुछ कहा भी उसने.

उसने कहा की "क्यूं तू मुझको,
पूजा करता है सारा दिन,
कभी सुनी है मैने तेरी?
मै तो मस्त हूं अपने सुख में.
इतनी फ़ुर्सत कहां है मुझको?
कई युगों तक सुख में रहकर,
भूल चुका हूं तुम लोगों को.
मेरे ठाठ में खलल ना डालो,
पीपल की शाखों पे धागे
और ना बांधो"............


खोल दो पीपल की शाखों से
सारे धागे
फेंक दो सारे हर्फ़ दुआं के
होंठों पर से.

आलोक

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