23.4.09

जीतना इतना आसान नहीं


रेल के डिब्बों सा है बहुमत, जिसकी रेलगाड़ी लंबी उसी की सरकार और जिसकी छोटी उसकी हार
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मनोज राठौर
लोकसभा में पार्टियों के लिए बहुमत की डगर आसान नहीं है। उन्हें बहुमत जुटाने के लिए अन्य पार्टियों से जुगाड़ करना पड़ेगी। नेताओं के भाषण, विज्ञापन और तमाम तरह के प्रचार-प्रसार करने के बाद भी उन्हें अपनी दूसरी चाले भी खेलना होगी, जब जाकर विजय द्वार तक पहुंच पाएगें। किसी भी आधार पर चुनाव लड़े पार्टी को जीत चाहिए, चाहे वे किसी भी माध्यम से दर्ज हो। पिछली संसद में 543 सांसदों में 128 आपराधिक पृष्ठभूमि के बाहुबलियों को टिकट दिए गए थे। पिछले 12 आम चुनावों में मतदाता 17 करोड़ से 71 करोड़ हो गए। अभी तक औसत वोट 60 प्रतिशतपडे़। सर्वाधिक 64 प्रतिशत मतदान 1984 में और सबसे कम 55 प्रतिषत 1962 में हुआ था। महिला मतों की संख्या पुरूष वाटों से हर चुनावों मेें करीब 10 प्रतिशत कम रही है। लोकसभा चुनाव में लगभग सभी पार्टियों ने चुनाव प्रचार के दौरान जनता से वोट डालने की अपील की। हालांकि पहले भी पार्टियों ने वोट डालने के लिए नागरिकों को जागरूक किया था, लेकिन सब झुठे मुंह से बोलते हैं। इसलिए तो आज तक वोट डालने का प्रतिशत बढ़ा नहीं है।
मतदाता तो मतवालों से कम नहीं है, जिस पर मन आ जाए उसको वोट देते हैं। प्रति संसदीय क्षेत्र में 12 से 31 लाख मतदाता हैं। समस्त उम्मीदवार प्रचार के लिए चुनाव में करीब 2 लाख बीस हजार रूपए खर्च करता है। अनुमान है कि प्रत्याशी करीब 30 हजार करोड़ रूपए चुनाव में खर्च करेंगे, जो अधिकृत व्यय सीमा से करीब छह गुना अधिक है। चुनाव में छह गुना खर्च करना तो नेताओं के स्वभाव हैं, क्योकि उन्हें पता है कि वसूलना तो जनता से ही है और हार गए तो अपना क्या जाएगा है। यदि जाता भी तो पार्टी का जाएगा। पिछले चुनाव में कांग्रेस के 400 उम्मीदवार में मात्र 145 विजयी हुए। भाजपा के 364 उम्मीदवारों में कुल 138 विजयी हुए। बसपा से 435 उम्मीदवार लड़े, पर 19 ही जीते। सपा के 237 उम्मीदवारों में 36 विजयी हुए। डीएमके एवं पीएमके ही अपवाद रहे, जिन्होंने क्रमश 16 व 6 उम्मीदवार खड़े किए और सब विजयी हुए। पिछले चुनाव में 4218 प्रत्याशी 545 सीटों के लिए चुनाव लड़े। इस प्रकार हर 77 प्रत्याशियों में एक प्रत्याशी सफल हुआ, पर चुनाव आयोग को व्यवस्था व सुरक्षा 4218 प्रत्याशियों की करनी पड़ी। चुनाव आयोग को 1952 की तुलना में सात गुने अधिक मतदान केंद्र स्थापित करने पड़े, क्योंकि तब मात्र 10 करोड़ लोगों ने वोट डाले, जबकि 2004 में 37 करोड़ वोट डाले गए। चुनाव आयोग पर बढ़ता दबाव और खर्च पर किसी की नजर नहीं जाती। वोटिंग की सभी व्यवस्था पर होने वाला व्यय प्रतिवर्ष बढ़ता जा रहा है। शुक्र है कि वोटिंग व्यवस्था कम है, वरना चुनाव करने में लगने वाला समय और उसके खर्चों डबल हो जाएगा। पिछले चुनाव की यदि 1999 के चुनाव से तुलना की जाए तो भाजपा को 2004 में 5 प्रतिशत कम मत मिले, पर उसने 44 प्रतिशत सीटें हारीं। कांग्रेस को भी 1।6 कम वोट मिले, पर उसे 32 प्रतिशत सीटों का नफा हुआ। इसलिए यदि कोई वोटों के प्रतिशत से अपनी सीटों का आकलन कर रहा है तो उसे परिणामों से चकित होने की पूरी संभावना है। चुनाव में तमिलनाडु में डीएमके की हालत कमजोर हो गई है। वह इस बार शायद ही दहाई का आंकड़ा पार कर पाएगी। कांग्रेस तमिलनाडु, आंध्र, असम, महाराष्ट्र, पंजाब व उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों में नुकसान उठाएगी, जबकि पश्चिम बंगाल, राजस्थान, उड़ीसा, गोवा, मध्य प्रदेश व केरल में स्थिति मजबूत कर सकती है। लगता नहीं कि वह अपनी 2004 की संख्या तक पहुंच पाएगी। यही हाल भाजपा का भी है। उसकी स्थिति बिहार, पंजाब, झारखंड व उत्तर-पश्चिम प्रदेशों में सुधरेगी, पर अन्य राज्यों में हुए नुकसान के कारण वह और उसका गठबंधन भी 200 का आंकड़ा पार नहीं कर पाएगा। सभी अनुमानों के अनुसार बसपा नई सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। इसके लिए वह मुंहमांगी कीमत वसूलना चाहेगी। यह संभव है कि 1996-1998 की स्थिति की पुनरावृत्ति हो, जब देवगौड़ा तथा गुजराल को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा। बीच का रास्ता यह हो सकता है कि बसपा को महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे जाएं। बसपा किसी भी गठबंधन के साथ जा सकती है। चुनाव रूपी शादी में दूल्हा तो तैयार हो गया और उसके साथ बाराती भी होंगे, लेकिन उसे जरूरत है बस दुल्हन। मेरा इशारा बहुमत की ओर है। जिस पार्टी तो तैयार हो जाएगी, मगर सरकार बनाने के लिए बहुमत चाहिए। भागीदारी भी आ जाएगी, लेकिन बहुमत चाहिए। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की बिन बहुमत सब सून।
मतदाता की आशा और निराशा का किस पर असर पड़ेगा। जो होगा वे पार्टी के हित में होगा। इसके बावजूद पार्टियों को बहुमत की आवश्यकता क्यो? आज परिस्थितियां बिल्कुल विपरीत है। जो जीता वही सिकंदर वाली बात पुराने जमाने की थी, जो चुनाव के इस महादंगल में लागू नहीं होती है। चुनाव में जिसका बहुमत उसकी सरकार का नारा चलन में है। चुनाव के बाद सभी पार्टियों की किस्मत डिब्बों में बंद हो जाती, लेकिन इसके बावजूद भी उनके चेहरे से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके परिणाम क्या रहेंगे। मौसम लोकसभा चुनाव का है। सभी दल इस दंगल को जीतने की कोशिश करेंगे। इस महासंग्राम में जीतने के बाद भी पार्टियों को बहुमत की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए वह अभी से दूसरे दलों से संबंध बनाने में लग गए हैं। बहुमत की बेल के सहारे ही सरकार बनेगी।
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