सलीम अख्तर सिद्दीकी
23 मई 1987 को मेरठ के मलियाना कांड हुए 23 साल हो गए हैं। एक पीढ़ी बुढ़ापे में कदम रख चुकी है तो एक पीढ़ी जवान हो गयी है। लेकिन मलियाना के लोग आज भी उस दिन का टेरर भूले नहीं है। और न ही पीड़ितों को अब तक न्याय और उचित मुआवजा मिल सका है। 23 मई 1987 की सुबह बहुत अजीब और बैचेनी भरी थी। रमजान की 25वीं तारीख थी। दिल कह रहा था कि आज सब कुछ ठीक नहीं रहेगा। तभी लगभग सात बजे मलियाना में एक खबर आयी कि आज मलियाना में घर-घर तलाशी होगी और गिरफ्तारियां होंगी। वो भी सिर्फ मुस्लिम इलाके की। कोई भी इसकी वजह नहीं समझ पा रहा था। भले ही 18/19 की रात से पूरे मेरठ में भयानाक दंगा भड़का हुआ था, लेकिन मलियाना शांत था और यहां पर कफ्ूर्य भी नहीं लगाया गया था। यहां कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो दूर तनाव तक नहीं हुआ था। हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ सुख चैन से रहते आ रहे थे। तलाशियों और गिरफ्तारियों की बात से नौजवानो में कुछ ज्यादा ही बैचेनी थी। इसी बैचेनी में बारह बज गए। इसी बीच मैंने अपने घर की छत से देखा कि मलियाना से जुड़ी संजय कालोनी में गहमागहमी हो रही है। ध्यान से देखा तो एक देसी शराब के ठेके से शराब लूटी जा रही थी। पुलिस और पीएसी शराब लुटेरों का साथ दे रही थी। और बहुत से लोगों ने यह नजारा देखा तो माहौल में दहशत तारी हो गयी। कुछ लोगों ने यह कहकर तसल्ली दी कि शायद कुछ लोगों को शराब की तलब बर्दाश्त नहीं हो रही होगी, इसलिए शराब को लूटा जा रहा है। यह सब चल ही रहा था कि पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरु कर दिया। घेरेबंदी कुछ इस तरह की जा रही थी मानो दुश्मन देश के सैनिकों पर हमला करने के लिए उनके अड्डों को घेर रही हो। यह देखकर, जिसे जहां जगह मिली जाकर छुप गया। इसी बीच ज+ौहर की अजान हुई और बहुत सारे लोग हिम्मत करके नमाज अदा करने मस्जिद में चले गए। नमाज अभी हो ही रही थी कि पुलिस और पीएसी ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरु कर दी। दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया। घरों में लूट और मारपीट शुरु कर दी नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मारा-पीटा गया। उन्हीं नौजवानों में मौहम्म्द याकूब थी था, जो इस कांड का मुख्य गवाह है। तभी पूरा मलियाना गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज गया। गोलियां चलने की आवाज जैसे एक सिगनल था। दंगाइयों, जिनमें विहिप और बजरंग दल जैसे साम्प्रदायिक दलों के कार्यकर्ता अधिक थे, ने मुसलमानों के घरों को लूटना और जलाना शुरु कर दिया। तेजधार हथियारों से औरतों और बच्चों पर हमले हुए। पुलिस और पीएसी ने उन दंगाईयों की ओर से मुंह फेर लिया। शराब का ठेका लूटने का रहस्य भी पता चला। दंगाई नशे में घुत थे। यह सब दोपहर ढाई बजे से शाम पांच बजे तक चलता रहा। पांच बजे के बाद कुछ लोग बदहवासी के आलम में सड़कों पर निकल आए। कुछ लोगों की हालत तो पागलों जैसी हो रही थी। वह अपने जुनूं में कुछ का कुछ बोल रहे थे। कुछ की ये हालत दहशत की वजह से थी, तो कुछ ने अपने सामने ही अपने को मरते या गम्भीर से रुप से घायल होते देखा था, इसलिए उनकी हालत पागलों जैसी हो गयी थी। जो लोग घरों में दुबके पड़े हुऐ थे, उन्हें लग रहा था कि शायद वे ही जिंदा हैं, बाकी सब को मार दिया गया है। शोर शराबा सुनकर मलियाना के सभी लोग सड़कों पर निकल आए। बहुत लोग कराह रहे थ। कुछ गम्भीर घायल थे, जिन्हें सहारा देकर लाया जा रहा था। सड़कों पर हूजूम देखकर पुलिस और पीएसी ने गोलियां चलाना बंद कर दिया। इसी बीच एक युवक ने एक पीएसी वाले को कुछ बोल दिया। पीएसी के जवान ने निशाना साधकर युवक पर फायर झोंक दिया। गोली युवक के तो नहीं लगी, लेकिन उसके साथ चल रही शाहजहां नाम की एक बारह साल की बच्ची की आंख में जा लगी। यह देखकर पीएसी के जवान को भी शायद आत्मग्लानि हुई और वह सिर झुकाकर चुपचाप एक गली में चला गया।
अब तक मलियाना के सभी मुसलमान, जिनमें बच्चे और औरतें भी शामिल थीं, मलियाना से बाहर जाने वाले रास्ते पर इकट्ठा हो चुके थे। वहीं पर मेरठ के आला पुलिस अफसर खड़े थे। शायद जायजा ले रहे थे कि ‘ऑप्रेशन मुस्लिम मर्डर’ ठीक से मुक्कमल हुआ या नहीं। घायलों की तरफ उनकी तवज्जो बिल्कुल नहीं थी। इसी बीच आला पुलिस अफसरों की पीठ पीछे कुछ दंगाई एक घर में आग लगा रहे थे। एक अफसर का ध्यान उस ओर दिलाया गया तो वह मुस्करा बोला-‘तुम लोग इमरान खाने के छक्कों पर बहुत तालियां बजाते हो, ये इसका इनाम है।‘ बाद में पता चला कि उस घर में पति-पत्नि सहित 6 लोग जिन्दा जलकर मर गए। जब उनकी लाशें बाहर निकाली गयीं तो मां-बाप ने अपने वारों बच्चों को अपने सीने से चिपकाया हुआ था। इस बीच रोजा खोलने का वक्त हो चुका था। लेकिन रोजा खोलने के लिए कुछ खाने को तो दूर पानी भी मयस्सर नहीं था। जब पुलिस अफसरो से पानी की मांग की गयी तो उन्होंने यह कहकर मांग ठुकरा दी कि आप सब अपने-अपने घरों में जाकर रोजा खोलें। लेकिन दशहत की वजह से कोई भी अपने घर जाने को तैयार नहीं हुआ। रात के बारह बज गए। अब तक किसी भी प्रकार की राहत का दूर-दूर तक पता नहीं था। मीडिया को मलियाना में आने नहीं दिया जा रहा था। किसी प्रकार बीबीसी का एक नुमाइन्दा जसविन्दर सिंह छुपते-छुपाते मलियाना पहुंचा। उसके साथ अमर उजाला का फोटोग्राफर मुन्ना भी था। जसिवन्दर ने पूरी जानकारी ली। पता नहीं कैसे पुलिस और पीएसी को दोनों पत्रकारों की उपस्थिति का इल्म हो गया। पीएसी से फोटोग्राफर का कैमरा छीनकर उसकी रील नष्ट कर दी। दोनों पत्रकारों को फौरन मलियाना छोड़कर जाने का आदेश दिया। सुबह होते-होते मलियाना को फौज के हवाले कर दिया गया। फौज के सहयोग से हम लोगों ने लाशों की तलाश का काम शुरु हुआ, जो कई दिन तक चलता रहा। हौली चौक पर सत्तार के परिवार के 11 सदस्यों के शव उसके घर के बाहर स्थित एक कुए से बरामद किए गए। कुल 73 लोग मारे गए थे। मारे गए लोगों में केवल 36 लोगों की शिनाख्त हो सकी। बाकी लोगों को प्रशासन अभी भी लापता मानता है। हालांकि उनके वारिसान को यह कहकर 20-20 हजार का मुआवजा दिया गया था कि यदि ये लोग लौट कर आ गए तो मुआवजा राशि वापस ले ली जाएगी। ये अलग बात है कि आज तक कोई ‘लापता’ वापस नहीं लौटा है। शासन प्रशासन ने इस कांड को हिन्दू-मुस्लिम दंगा प्रचारित किया था। लेकिन यहां पर किसी एक गैरमुस्लिम को खरोंच तक नहीं आयी थी।
कत्लेआम के बाद मलियाना नेताओं का ÷तीर्थस्थ्ल÷ हो गया था। शायद ही कोई ऐसा नेता बचा हो, जो मलियाना न आया है। भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने भी मलियाना का दौरा करके कहा था कि मलियाना में पुलिस और पीएसी ने ज्यादती की है। विपक्ष और मीडिया के तीखे तेचरों के चलते चलते इस कांड की एक सदस्यीय जांच आयोग से जांच कराने का ऐलान किया गया था। आयोग के अध्यक्ष जीएल श्रीवास्तव ने एक साल में ही जांच पूरी करके सरकार को रिपोर्ट सौंप दी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का हश्र भी ऐसा ही हुआ, जैसा कि अन्य आयोगों की रिपोर्टां का अब तक होता आया है। मुसलमानों का हितैषी होने का दम भरने वाले मुलायम सिंह हों, मायावाती हों या आजम खान हों, किसी ने भी अपने शासनकाल में रिपोर्ट को सार्वजनिक करके दोषियों को सजा दिलाने की कोशिश नहीं की। हां इतना जरुर हुआ कि समय-समय पर मलियाना कांड का जिक्र करके राजनैतिक लाभ जरुर उठाया गया। कहा जाता है कि जांच आयोग की रिपोर्ट में पुलिस और पीएसी को दोषी ठहराया गया है। अफसोस इस बात का है कि मलियाना कांड में मुख्य भूमिका निभाने वाले पुलिस और पीएसी के अधिकारी इज्जत के साथ न केवल नौकरी पर कायम रहें, बल्कि तरक्की भी करते रहे। उस समय दोषी पुलिस और पीएसी अधिकारियों को सस्पेंड करना तो दूर उनका तबादला तक भी नहीं किया गया था। ये अधिकारी एक लम्बे अरसे तक मलियाना कांड के पीड़ीतों की मदद करने वालों को धमकाते रहे। पुलिस ने इन पंक्तियों के लेखक को भी उस समय मीडिया से दूर रहने के लिए कहा था, क्योंकि उस समय दुनिया भर के मीडिया में मेरे माध्यम से खबरें आ रहीं थीं। ऐसा नहीं करने पर रासुका में बन्द करने की धमकी दी थी।
23 बरस बाद यह कांड 15 अक्टूबर 2008 को तब फिर सुर्खियों में आया, जब इस कांड के फरार चल रहे 21 आरोपी फास्टट्रेक कोर्ट में हाजिरी देने गये। अदालत ने इन आरोपियों समेत 93 लोगों के गैर जमानती वारंट जारी कर रखे थे। कुछ आरोपी तो न केवल स्थानीय पुलिस की नाक के नीचे रह रहे थे, बल्कि कारोबार भी कर रहे थे। इस अति चर्चित कांड की सुनवाई यूं तो फास्ट ट्रेक अदालत में चल रही है, लेकिन अभी भी उसकी चाल बेहद सुस्त है। आरोपियों के वकील कार्यवाही को बाधित करने का हर संभव हथकंडा अपना रहे हैं। फास्ट ट्रेक अदालतों का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि मलियाना जैसे जघन्य मामलों की सुनवाई जल्दी से जल्दी हो सके। लेकिन लगता नहीं कि जल्दी इंसाफ मिल पाएगा। इस लड़ाई में मलियाना के मुसलमान अकेले हैं। उन्हें केस लड़ने के लिए कहीं से भी किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है। मुख्य गवाहों को धमकाया जा रहा है। बयान बदलने के लिए पैसों का लालच दिया जा रहा है। ऐसे में इस केस का क्या हश्र होगा अल्लाह ही जानता है। क्या वे नेता जिन्होंने मलियाना कांड पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकी हैं, मलियाना कांड केस को लड़वाने में किसी प्रकार की मदद करेंगे ? आज तक किसी भी नेता ने यह कोशिश भी नहीं की कि मलियाना के पीडितों को भी 1984 के सिख विराधी दंगों की तरह आर्थिक पैकेज मिले। हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों को सरकार 5-5 लाख रुपए का मुआवजा दे चुकी है।
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