सिक्किम प्रकृति प्रेमियों का पसंदीदा स्थान तो है ही, ट्रेकिंग के लिए रोमांच भरे अनेक क्षेत्रों के कारण ट्रेकर्स को भी विशेष रूप से आकर्षित करता है। विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा भी यहीं है जिसकी सूर्योदय की सुनहरी आभा दिल-दिमाग पर गहरी छाप छोड जाती है। जाहिर है ऐसे पर्वत के साये में साधारण से लेकर ऊंचाई वाली ट्रेकिंग के लिए अनेक क्षेत्र मौजूद है जिनमें पैदल सैलानियों के दमखम का जोरदार इम्तिहान होता है। यूं तो प्रकृति का अपना बगीचा और फूल का प्रदेश कहलाने वाले सिक्किम में अन्य साहसिक गतिविधियों के लिए चारों दिशाओं में अनेक स्थान नदियां और बर्फीले इलाके मौजूद हैं परंतु पश्चिम सिक्किम में ऊंचाई वाली ट्रेकिंग का रोमांच अलग ही है।
युकसम सिक्किम की पहली राजधानी रही है, जिसकी समुद्रतल से ऊंचाई 5600 फुट है। जोगरी जेमाथांग जैसे ट्रेक और कंचनजंघा पर चढाई के लिए आधार शिविर यहीं लगाए जाते हैं जिससे पश्चिम सिक्किम के इस क्षेत्र का महत्व और बढ जाता है। कई अन्य ट्रेक भी यहां से प्रारंभ होते हैं। थोडी संजीदा ट्रेकिंग के लिए यहां से एक सरकुलर ट्रैक आयोजित किया जाता है जिसके मुख्य पडाव हैं- युकसम-सोका जोंगरी-थानजिंग- सुमिति झील (मिनी मानसरोवर) जेमाथांग-गोछा ला-थानजिंग- लामपोखरी-कस्तूरी ओराल-युकसम।
कुछ समय पहले सिक्किम सरकार के पर्यटन विभाग ने नेशनल हाई एल्टीट्यूड ट्रेकिंग प्रोग्राम का आयोजन किया था जिसमें देश के अनेक भागों से आए ट्रेकिंग दलों ने भाग लिया। दिल्ली से हमारा दल जब चला तो दो दिन दार्जीलिंग में रुका जहां इंटरनेशनल हिमालयन माउंटेनियरिंग मीट आयोजित की गई थी। हम उसमें सम्मिलित हुए। सर एडमंड हिलेरी व उनकी धर्मपत्नी, उनके पर्वतारोही पुत्र पीटर हिलेरी, तेनजिंग नोर्गे, नवागं गोम्बू, उनकी बेटी रीटा गोम्बू, फू दौरजी जैसे महान पर्वतारोहियों के अतिरिक्त इटली और स्पेन के कुछ पर्वतारोहियों से यहां हमारी भेंट हुई। दार्जीलिंग से हम सिक्किम की ओर बढे। हमारी बस ने रंगित नदी को पार किया जो पश्चिमी बंगाल और सिक्किम की सीमा निर्धारित करती है। पेलिंग में हम एक रात रुके। रक्षित नामक स्थानीय मादक पेय का अधिकतर साथियों ने सेवन कर आनंद लिया। अगले दिन हम युकसम में थे। जैसा कि आम तौर पर किसी भी ऊंचाई वाले इलाके (13-14 हजार फुट से ऊपर) में जाने के लिए जरूरी होता है, अपने शरीर को यहां के मौसम के हिसाब से ढालने (एक्लीमेटाइजेशन) के लिए हमें यहां दो दिन रुकना था। सीलन और नमी भरे इस क्षेत्र में जोंकों का जबरदस्त बोलबाला है। खुली जगह से लेकर आपके बिस्तर तक में भी वे आपको मिल सकती हैं। इनसे बचने के लिए हमें जूतों में नमक डालने के लिए दिया गया। फिर भी इनके आक्रमण से शायद ही कोई अछूता बचता हो। पास ही में ऊंचे स्थान पर एक प्राचीन बौद्ध मठ (मोनेस्ट्री) है। दूसरे दिन हम वहां गए और लौटकर अगले दिन ट्रेकिंग पर जाने की तैयारी में जुट गए।
सोका (10 हजार फुट) : जूतों में नमक डालकर हम अपने पहले पडाव सोका के लिए चल पडे। कुछ साथियों को जोंको ने काटने से नहीं छोडा। बुरांश (रोडोडेंड्रोन) के सुंदर पौधों पर कई जगह फूल थे जिनके बीच से हम आगे बढते रहे। कहीं जंगल और कहीं पानी के बहाव देखकर हम कुछ क्षण के लिए अपनी थकान भूल जाते थे। रास्ते में याक भी मिले। शाम होने से पहले हम सोका पहुंच चुके थे।
जोंगरी (12800 फुट) : अगले पडाव जोंगरी के लिए हम चले तो कुछ देर बाद वर्षा ने आ घेरा। काफी तेज बारिश ने हमारी समस्याएं बढा दी। ज्यों-ज्यों हम आगे बढ रहे थे वनस्पति कम होती जा रही थी। केवल बुरांश के फूल अधिक दिखाई दे रहे थे। दोपहर बाद हम जोंगरी पहुंच चुके थे। वहां हिमपात हुआ था। चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी और ठंड भी अधिक थी। चाय और भोजन का प्रबंध तो हर स्थान पर सरकारी था और हमको भोजन बनाने की आवश्यकता नहीं थी परंतु ऊंचाई के प्रभाव के कारण कुछ भी खाने को मन नहीं कर रहा था। सिर दर्द और मितली इसके असल की निशानी हैं। रात को सोना भी मुश्किल हो जाता है। अगली सुबह कुछ सदस्य आगे बढने से कतरा रहे थे। लेकिन हिम्मत करके सब साथ चल पडे।
थानजिंग (12400 फुट) : ऊंचाई वाले ट्रैक का अभ्यास न होने के कारण ऑक्सीजन की कमी कैसे पूरी की जाए, इस बात का ज्ञान मुझे नहीं था। थानजिंग की ओर बढते हुए हमें नरसिंह पर्वत और पंडिम शिखर के भव्य दर्शन हुए। खिली धूप में दोनों पर्वतों पर पडी बर्फ की चमक ज्यादा देर अपनी ओर निहारने नहीं दे रही थी। गंतव्य स्थान तक पहुंचने में हमें ज्यादा समय नहीं लगा क्योंकि जोंगरी की ऊंचाई से हम कुछ नीचे की ओर जा रहे थे और दूरी भी अधिक नहीं थी।
सुमति झील (14130 फुट) और जेमाथांग : सुमिति झील को सिक्किम में मिनी मानसरोवर भी कहते हैं। समय-समय पर यहां काले हंस भी दिखाई देते हैं। जेमाथांग भी झील के साथ ही है। अद्भुत नजारा था। प्रकृति ने मानो हम पर कृपा करके मौसम खुशगवार रखा परंतु दोपहर से पहले ही मौसम खराब होने लगा। हमने झील के किनारे अच्छा खासा समय बिताया। 16200 फुट की ऊंचाई पर स्थित गोछा शिखर का प्रतिबिंब झील में पड रहा था। गोछा ला तक शायद ही कोई गया था। दोपहर को हम थानजिंग वापिस लौट आए। युकसम की ओर वापसी शुरू हो चुकी थी। हालांकि झील की खूबसूरती को छोडकर लौटने का किसी का मन नहीं कर रहा था। थानजिंग से सुमति झील के सफर में ही ओंगलाथांग से कंचनजंघा का शानदार नजारा देखा जा सकता है।
लामपोखरी (13890 फुट) : अगली सुबह हमने नाश्ता किया तथा फिर कुछ आराम करके ट्रेकिंग शुरू की। दुर्भाग्य से मुझे ऊंचाई का असर महसूस होने लगा था। मुझसे एक कदम भी आगे चला नहीं जा रहा था। कुछ साथियों ने सहारा देने की कोशिश तो की लेकिन मुझसे चला नहीं जा रहा था। मैं बैठा रहा और पहले दल के सदस्य और फिर दल के उपनेता और नेता भी चुपचाप आगे निकल गए। अंत में सबसे धीमे चलने वाले दो सदस्य डाक्टर यादव और प्रोफेसर शेखर मेरे पास आए। मेरी हालत को गंभीरता से लेते हुए वे दोनों वहीं रुक गए। उनके साथ एक पोर्टर भी था। पहले तो डाक्टर यादव ने मुझे मीठा पेयजल खूब पिलाया ताकि पानी से मेरे अंदर आक्सीजन की मात्रा बढाई जाय। फिर मुझे सुला दिया। लगभग डेढ घंटा मैं सोया रहा और वे तीनों भी मेरे समीप बैठे रहे। अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि मुझे थानजिंग वापिस ले जाया जाए। डाक्टर यादव और पोर्टर ने कष्ट उठाते हुए सहारा दे देकर कैंप तक पहुंचाया। प्रोफेसर शेखर धीरे-धीरे आगे बढते रहे ताकि डाक्टर यादव उनसे वापिस आ मिलें। रात हो चुकी थी। डाक्टर और पोर्टर मुझे कैंप में पहुंचाकर लामपोखरी की तरफ चल पडे। कैंप लीडर ने वायरलेस सेट से इधर-उधर सूचना देकर पांच पोर्टरों का प्रबंध किया और अगले दिन मुझे वे पोर्टर बारी-बारी से पीठ पर उठाकर किसी छोटे रास्ते से सोका कैंप पर ले गए। यहां पर कम ऊंचाई के चलते मेरी स्थिति सुधरने लगी। मैं उन पोर्टरों का आभारी था जिन्होंने ऐसी स्थिति में मेरी सहायता की। पहाड के लोग ऐसे ही मददगार स्वभाव के लिए जाने भी जाते हैं।
कस्तूरी ओराल (9880 फुट) : लामपोखरी में रात बिताकर मेरे साथी कस्तूरी ओराल आए और मैं सोका से युकसम पहुंच गया। अगले दिन सभी साथी भी आ मिले। सबने अपनी-अपनी कथा-व्यथा सुनाई और ट्रेकिंग अभियान पूरा होने की खुशी मनाई।
ट्रेकिंग शुरू करने से पहले हमने मुंबई से आए दल की एक महिला सदस्य को बीमार होते देखा था। वह आगे नहीं जा सकी थी। उसकी एक साथी लडकी ने उसे अकेला नहीं छोडा और बिना ट्रेकिंग किए अपनी सहेली को लेकर मुंबई लौट गई थी। आयोजकों ने उस लडकी की सराहना तो की ही साथ ही डाक्टर यादव और प्रोफेसर शेखर की भी भूरी-भूरी प्रशंसा की। अगले दिन हमें सिक्किम सरकार के पर्यटन विभाग की ओर से प्रमाणपत्र देकर विदा किया गया। हम गंगटोक होते हुए दिल्ली लौट चले।
सिक्किम एक नजर में कैसे : सिक्किम में न तो कोई रेलवे स्टेशन है और न ही हवाई अड्डा। लेकिन बावजूद इसके वहां पहुंचने में कोई मुश्किल नहीं। पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में बागडोगरा हवाई अड्डा सिक्किम के लिए सबसे समीप है। गुवाहाटी, कोलकाता और दिल्ली से रोजाना बागडोगरा के लिए उडानें हैं। हवाई अड्डे से सिक्किम की राजधानी गंगटोक 124 किमी दूर है। यह रास्ता आप सडक मार्ग से भी तय कर सकते हैं और चाहें तो सिक्किम पर्यटन विभाग की बागडोगरा और गंगटोक के बीच हेलीकॉप्टर सेवा का भी फायदा उठा सकते हैं। सिक्किम के लिए सबसे समीप के दो स्टेशन सिलीगुडी और न्यू जलपाईगुडी हैं। गंगटोक से इनकी दूरी क्रमश: 114 व 125 किलोमीटर है। सिक्किम में सडकें अच्छी हैं और दूर-दराज के भी ज्यादातर हिस्से अच्छी सडक से जुडे हैं।
परमिट : सीमांत प्रांत होने के कारण विदेशी नागरिकों को यहां आने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) लेना होता है जो उन्हें वीजा के आधार पर मिल जाता है। परमिट सिक्किम पहुंच कर भी मिल जाता है जिसकी अवधि 15 दिन होती है। यह अवधि बढवाई जा सकती है।
ठहरने के लिए स्थान: सिक्किम में होटलों और लॉज की कमी नहीं है। प्रत्येक आय वर्ग के अनुकूल रहने के लिए उचित स्थान मिल जाता है। चाहे सरकारी क्षेत्र में या फिर निजी क्षेत्र में।
मौसम एवं तापमान : हिमालय की तलहटी में होने के कारण यहां का मौसम अन्य हिमालयी राज्यों जैसा ही है। सर्दियां काफी ठंडी और गरमियां सुहानी। बस बारिश से बचें क्योंकि बारिश में पहाड घूमने का मजा किरकिरा हो जाता है। मार्च से जून और फिर अक्टूबर से दिसंबर तक का समय यहां जाने के लिए सबसे दुरुस्त है।(साभार)
भाई जी, यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा पेज से लिया गया है। कृपया उसका उल्लेख तो कर दें। धन्यवाद !!!
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