आज सब जगह समलैंगिकता पर चर्चाएं हो रही। जिस भी News Channel को देखो वही इस पर अपना Special programme चला रहा है। News Paper ऐसी ख़बरों से भरे हुए है। हर जगह बहस का मुद्दा बना हुआ है ये समलैंगिकता। मैंने पहले भी अपने ब्लॉग "कुछ बात" में लिखा है कि समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है और इसका इलाज होना चाहिए न कि इसे समाज में स्वीकार्य बनाना चाहिए।
अभी कुछ देर पहले ही मैं एक News Channel पर इसी विषय पर एक बहस देख रहा था जिस में स्वामी रामदेव सहित और भी कई गणमान्य लोग मौजूद थे। स्वामी रामदेव इसके विरूद्व बोलते हुए दिखे तो बाकी सारे लोग उन्हें ग़लत साबित करने पर एकमत थे। खैर सबकी अपनी अपनी सोंच और अपनी अपनी राय...
मैं उन सब लोगों (उन जज साहब से भी, जिन्होंने इसे वैधानिक ठहराया है) जो समलैंगिकता के समर्थन में बढ़-चढ़ कर बोल रहे है, से एक प्रश्न करना चाहूँगा... और चाहूँगा कि वो इस सवाल का जवाब भी उसी तरह दे जिस तरह से वो सब समलैंगिकता को समर्थन दे रहे है...
क्या वो अपने बच्चों को गे या लेस्बियन बनते हुए देखने को तैयार है? क्या वो ख़ुद समलैंगिक होने को तैयार है? क्या वो बनेंगे गे या लेस्बियन? और अगर उनका जवाब "ना" है तो उन सब से एक ही बात कहना चाहूँगा कि बंद करें वो अपना तमाशा और घर में चुप-चाप बैठे... न हमारी देश कि परम्परा और संस्कार को मिटने कि कोशिश करें न ही हमारी आस्थाओं से खिलवाड़ करें...
है कोई जवाब???
अभी कुछ देर पहले ही मैं एक News Channel पर इसी विषय पर एक बहस देख रहा था जिस में स्वामी रामदेव सहित और भी कई गणमान्य लोग मौजूद थे। स्वामी रामदेव इसके विरूद्व बोलते हुए दिखे तो बाकी सारे लोग उन्हें ग़लत साबित करने पर एकमत थे। खैर सबकी अपनी अपनी सोंच और अपनी अपनी राय...
मैं उन सब लोगों (उन जज साहब से भी, जिन्होंने इसे वैधानिक ठहराया है) जो समलैंगिकता के समर्थन में बढ़-चढ़ कर बोल रहे है, से एक प्रश्न करना चाहूँगा... और चाहूँगा कि वो इस सवाल का जवाब भी उसी तरह दे जिस तरह से वो सब समलैंगिकता को समर्थन दे रहे है...
क्या वो अपने बच्चों को गे या लेस्बियन बनते हुए देखने को तैयार है? क्या वो ख़ुद समलैंगिक होने को तैयार है? क्या वो बनेंगे गे या लेस्बियन? और अगर उनका जवाब "ना" है तो उन सब से एक ही बात कहना चाहूँगा कि बंद करें वो अपना तमाशा और घर में चुप-चाप बैठे... न हमारी देश कि परम्परा और संस्कार को मिटने कि कोशिश करें न ही हमारी आस्थाओं से खिलवाड़ करें...
है कोई जवाब???
अभिषेक भाई,
ReplyDeleteबात समर्थन की है तो वो तो लोग इसलिए कर रहे हैं कि न्यायालय का निर्णय किसी कानून
(धारा-377) के गलत इस्तेमाल के विरुद्ध में आया है। औऱ रही बात आपके सवाल की तो आपको इसका जवाब मैं बहुत ही सही तरीके से दे सकता हूं आप मेरे ब्लॉग पर पधारें, धारा-377...पढ़े। आपको आपके हर सवाल का जवाब मिल जाएगा।
maine aapke dono lekh padhe ekdam thik likha hai.in samlaingikon ko maine bhi shabashi di hai padhen
ReplyDeletetensionpoint.blogspot.com
अभिषेक जी धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर पधारनें के लिए,आपनें कहा कि कोर्ट लोगों की आस्था के बारे में सोचे? पर कोर्ट ने किसी को आस्था को
ReplyDeleteठेस पहुंचानें वाला तो कोई काम नहीं किया। किस धर्म शास्त्र में किन्नरों की गिनती इस लोक के जीवों में नहीं होती? आप ये भी भली-भांति जानतें होंगें की हमारें देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में जानवरों तक को संरक्षण देनें के लिए नियम बनाएं जाते हैं उनको जीनें के अधिकार से वंचित करनें के लिए भी सज़ा का प्रावधान है, इंसान अपनी शक्तिय़ों और क्षमताओं को जानता था इसीलिए उसनें अपनें और प्रकृति के बीच इस पूरी उसके द्वारा बनाई गई हर चीज़ को सम्मान करनें के लिए अलग स्थान दिया। कुछ नियम कायदें बनाए, इंसान से बड़ा खतरनाक पशु इस सृष्टि में कोई नहीं है और उससे बड़ा सहिष्णु भी कोई नहीं। इसी देश में नारी को आज भी तिरस्कृत किया जाता है वो भी आपकी संस्कृति में ही है शायद! आप ही के किसी वेद ग्रंथ के बोल हैं कि "ढोल,गावंर,शूद्र,पशु,नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ।।"
सदियों तक इसे ही संस्कृति माना, और इसे आज भी लोग मानतें है, और ऐसे बहुतेरे उदारहरण है, जहां आपकी तथाकथिक संस्कृति को चुनौती दी जा सकती है और दी भी है कई समाज सुधारकों नें आपको पता भी होगा। यही देश था जिसनें की सती-प्रथा के वरुद्ध हुए आंदोलनों,स्त्री शिक्षा,दलितों के मंदिर में प्रवेश, विरोध किया था औऱ यही देश है जहां आज भी दहेज के लिए स्त्री को मार दिया जाता है, शायद यही संस्कृति इज़ाज़त देती होगी...बातें बहुत हैं दोस्त।
मेरे भाई संस्कृति नदी की धारा की तरह सतत् प्रवाहित रहती है, स्थान-स्थान पर रंग बदलती है, सबको देनें का नाम संस्कृति है...नदी की भांति । थौंपनें का नाम संस्कृति नहीं...स्वार्थ कहलाता हैं।