माध्यम हिंसा मीठी हिंसा है।यह जहर है जो आनंद के साथ पिया जाता है। कलाओं में हिंसा का रूपायन मनुष्य बनाता है। किन्तु माध्यमों में हिंसा का प्रक्षेपण हिंसक बनाता है। हमारे समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं जो माध्यम हिंसा के प्रति तदर्थभाव रखते हैं। अथवा यह मानकर चलते हैं कि माध्यम हिंसा का कोई असर नहीं होता। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों को सुधारने के नाम पर टेलीविजन कार्यक्रम देखने से रोकते हैं। माध्यम जगत में इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर विस्तार से अध्ययन हुआ है। माध्यम निर्मित हिंसा मनुष्य में आक्रामकता बढ़ाती है।यह उसका पहला प्रभाव है।साथ ही आक्रामक व्यवहार के प्रति असहिष्णुता पैदा करती है।इसके अलावा संवेदनहीनता और भय पैदा करती है।
ए.एच.स्टेन और एल.के.फ्रेडरिक ने ''टेलीविजन कंटेंट एण्ड यंग चिल्ड्रेन''(1972)में अमरीका में असामाजिक तत्वों और उनके समर्थकों पर किए गए 48शोध कार्यों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि 3से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों में टेलीविजन के हिंसक कार्यक्रमों ने आक्रामकता में वृध्दि की है।विगत 30 वर्षों में जितने भी शोधकार्य हुए हैं वे इसकी पुष्टि करते हैं।टेलीविजन हिंसा के प्रभाव को लेकर किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि टेलीविजन हिंसा से आक्रामकता के अलावा असामाजिक व्यवहार में इजाफा होता है। हिंसक रूपायन का प्रभाव तात्कालिक तौर पर कई सप्ताह रहता है।कई लोग टेलीविजन हिंसा को अस्थायी तौर पर ग्रहण करते हैं या 'केजुअल' रूप में ग्रहण करते हैं। 'केजुअल'रूप में ग्रहण आक्रामकता में इजाफा करता है।खासकर उन लोगों पर इसका ज्यादा असर होता है जिनमें गुस्सा या आक्रामकता का भाव होता है।
माध्यम विशेषज्ञों ने तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन करके बताया है कि दर्शक की रिहाइश, उम्र,लिंग,सामाजिक,आर्थिक अवस्था,एथिनिसिटी आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। टेलीविजन हिंसा का प्रभाव न पड़े इसके लिए जरूरी है कि बच्चे / युवा को परिवार के जीवंत संपर्क में रखा जाए। उन बच्चों में कम प्रभाव देखा गया है जिनके परिवारों में हिंसा के खिलाफ माहौल है। अथवा जिन परिवारों में कभी मारपीट तक नहीं हुई। अथवा जिन परिवारों में सामाजिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। किन्तु जिन परिवारों में बच्चों के साथ दर्ुव्यवहार होता है,उत्पीड़न होता है।वहां बच्चे हिंसा के कार्यक्रम ज्यादा देखते हैं। हिंसक हीरो के साथ अपने को जोड़कर देखते हैं। समकक्ष और वयस्क चरित्र बच्चों की चेतना और व्यवहार को जल्दी प्रभावित करते हैं।खासकर समवयस्क पुरूष चरित्रों का बच्चों के आक्रामक व्यवहार पर तात्कालिक असर होता है। जबकि वयस्क पुरूष चरित्रों का प्रभाव छह महीने तक रहता है।
जे.स्प्राफकीन,के.डी.गदोव और पी.ग्रियर्सन ने ''इफेक्टस ऑफ व्यूइंग एग्रेसिव कार्टून ऑन दि विहेवियर ऑफ लरनिंग डिसेविल चिल्ड्रन''(1987)शोधपत्र में लिखा कि सामान्य तौर पर आक्रामक कार्टून और कण्ट्रोल कार्टून देखने के बाद 6-10 वर्ष के अपंग बच्चों के आइक्यू पर बुरा असर देखा गया। यह सोचना गलत है कि कार्टून बच्चों के आक्रामक रवैयये को प्रभावित नहीं करते। इसी तरह बच्चों की सोचने की क्षमता को भी कार्टून सीरियल प्रभावित करते हैं। यह व्याख्या पर निर्भर करता है कि बच्चे किस तरह कार्टून की व्याख्या करते हैं। साथ ही सोचने की स्थिति का बच्चे की उम्र से गहरा संबंध है। तीन वर्ष का बच्चा इतना सचेत हो जाता है कि वह अंतर्वस्तु का अर्थ खोजने लगता है। जबकि पांच साल का बच्चा दृश्यगत वैविध्य में आनंद लेने लगता है। यही वैविध्य उसकी मुख्य क्रीडास्थली है। तेजी से बदलते दृश्य,चरित्र,अनपेक्षित स्थान, घटनाएं,ध्वनि आदि उसे आकर्षित करती है। बच्चे कार्टून में हिंसा को बड़े गौर से देखते हैं।इस तरह के कार्टून के प्रति आकर्षण का कारण हिंसा नहीं है। बल्कि उसका वैविध्यपूर्ण उत्पादन है। छ से ग्यारह साल के बच्चे में यह क्षमता पैदा हो जाती है कि वह आने वाले प्लाट के बारे में पूर्वानुमान लगाने लगता है। साथ ही जो बच्चे ग्रहण क्षमता के लिहाज से अपंग होते हैं उनमें कार्टून धारावाहिकों का ज्यादा असर देखा गया है।
जो बच्चे भावनात्मक तौर पर परेशान रहते हैं उन पर आक्रामक चरित्र सबसे जल्दी असर पैदा करते हैं। इस तरह के बच्चे हिंसा के कार्टून ज्यादा चाव के साथ देखते हैं।आक्रामक या हिंसक चरित्रों को देखने के बाद बच्चों में समर्पणकारी एवं रचनात्मकबोध तेजी से पैदा होता है।
टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में किए गए सभी अध्ययन इस बात पर एकमत हैं कि इसके नकारात्मक प्रभाव से मानसिक उत्तेजना,गुस्सा और कुंठा पैदा होती है।साथ ही यह दर्शक को भड़काकर ऐसी अवस्था में ले जाता है जहां से उसमें आक्रामक रवैयया पैदा होता है। आक्रामक रवैयया ऐसी स्थिति में ज्यादा पैदा होता है जब दर्शक समाधानहीन उत्तेजना की स्थिति में होता है। बच्चे जब टेलीविजन पर आक्रामक या हिंसा के कार्यक्रम देख रहे होते हैं तब उनके चेहरे पर खुशी होती है। किन्तु बाद में इसके प्रभावस्वरूप कुण्ठा और उत्तेजना दिखाई देती है।
एच.पाइक और जी.कॉम स्टॉक ने ''दि इफेक्ट ऑफ टेलीविजन वायलेंस ऑन एण्टी सोशल विहेवियर:ए मेटा एनालिसिस'(1994)में बच्चों पर टेलीविजन प्रभाव के बारे में किए गए 217 शोधकार्यों का विश्लेषण करने के बाद पाया कि टेलीविजन कार्यक्रमों की हिंसा एवं असामाजिक आचरण संबंधी प्रस्तुतियों का बच्चों पर सीधा असर होता है। चाहे ये बच्चे किसी भी कक्षा में पढ़ते हों। जो दर्शक मीडिया के एक्सपोजर से परेशान होते हैं उनमें आक्रामकभाव ज्यादा देखा गया है। यह आक्रामकता खासतौर पर ऐसे समय पायी जाती है जब उत्तेजना का समाधान नहीं होता। टेलीविजन प्रभाव के लिए कुण्ठा का पहले से होना जरूरी नहीं है। बल्कि यह बाद में पैदा होती है। पेशेवर लोगों की मारपीट या हिंसा के बदले जब चरित्र बदले की कार्रवाई करता नजर आता है तब आक्रामक व्यवहार ज्यादा पैदा होता है। यह भी पाया गया है कि बच्चे जिस चरित्र से अपने को जोड़कर देखने लगते हैं उसका जल्दी प्रभाव होता है। प्रभावशाली चरित्र और खलनायक की हिंसा ज्यादा प्रभावित करती है। प्राइमरी के बच्चों में किए गए सर्वे बताते हैं कि बच्चों को महानायक जबर्दस्त प्रभावित करते हैं।
आम तौर पर मीडिया में पांच किस्म के संदर्भों में प्रस्तुतियां मिलती हैं।पुरस्कार और दण्ड,दुष्परिणाम,हिंसा की हिमायत,यथार्थवादी और उत्पादन की तकनीकी से निर्मित हिंसा। इसके अलावा हथियार की मौजूदगी और कामुकता के संदर्भ में भी हिंसा मिलती है। पुरस्कार और दंड के संदर्भ में निर्मित हिंसा यह सूचना देती है कि कौन सा एक्शन स्वीकार्य योग्य है।इस तरह के भी प्रमाण मिले हैं कि दस साल से ज्यादा उम्र के बच्चों पर इस तरह की मीडिया हिंसा का असर नहीं होता।क्योंकि वे पुरस्कार और दण्ड के बीच संबंध स्थापित करने में असमर्थ होते हैं। हिंसक चरित्र को यदि दण्डित किया जाता है तो दर्शक की आक्रामकता घट जाती है।इसी तरह गैर आक्रामक चरित्रों को जब पुरस्कृत किया जाता है तो दर्शक की आक्रामकता घटायी जा सकती है। दण्ड के अभाव में गुस्सा बढ़ता है। रुसक्रेंस और हर्टप ने तीन साल से लेकर पांच साल के बच्चों पर किए अनुसंधान में पाया कि जो बच्चे अनियमित ढ़ंग से वास्तव लोगों के हिसाचार को देखते रहे हैं उन पर टेलीविजन की हिंसा की बजाय वास्तव हिंसाचार का ज्यादा गहरा असर देखा गया है।
हिंसा के परिणामों का किस तरह और किस रूप में चित्रण दिखाया जाता है इससे भी प्रभाव का अनुमान किया जा सकता है। यदि हिंसा के परिणाम के तौर पर मुख्य चरित्र के यहां दर्द दिखाया जाता है तो इसका दर्शक पर असर होता है। पीड़ित का दर्द असर नहीं करता। हिंसा की वैधता और हिमायत में चित्रित रूपों के कारण बड़े पैमाने पर आक्रामक व्यवहार पैदा होता है। एल.बिरकोविट्ज और इ.रॉवलिंग ने ''इफेक्ट्स ऑफ फिल्म वायलेंस ऑन इनहिविटेशन्स अगेंस्ट सवसीक्वेंट अग्रेसन''(1963)शोधपत्र में लिखा कि फिल्मों में आक्रामक व्यवहार की वैधता दर्शक के वास्तव जीवन में हिंसा के निषेध को कम कर देती है। आम तौर पर मीडियावालों की तरफ से हिंसा की मंशा की वैधता के तर्क खूब सुने जाते हैं। आर.सी.ब्राउन और जे.टी.तिदेची ने ''डिटर्मिनेंट्स ऑफ परसीव अग्रेसन''(1976) शीर्षक शोधपत्र में लिखा कि हिंसा से ज्यादा वाचिक हिंसा का प्रभाव होता है।मसलन् मौखिक धमकी या गाली शारीरिक हमलों या हिंसक एक्शन की तुलना में ज्यादा हिंसक होती है। प्रतिशोध या प्रतिकार की मंशा से की गई हिंसा में भी हिंसा के प्रति अवरोध भाव पैदा करने की क्षमता होती है।
एल.बिरकोविट्ज और जे.टी.एलिओटो ने ''दि मीनिंग ऑफ वन ऑब्जवर्ड इवेंटएज ए डिटरमिनेंट ऑफ इट्स अग्रेसिव कॉनसिक्वेंस'' शोधपत्र में खेल(मुक्केबाजी और फुटबाल) पर बनी फिल्म का मूल्यांकन करते हुए लिखा कि इस फिल्म के अभिनेता पेशेवर लोगों की तरह खेल में भाग ले रहे थे। जिनका लक्ष्य था जीतना अथवा बदला लेने की मंशा थी। वे अपने एक्शन से किसी दूसरे को आघात पहुँचाना चाहते थे। इस तरह की फिल्में लम्बे समय तक आघात या सदमे की अवस्था में रखती हैं। हिंसा की तुलना में आत्म रक्षा के लिए की गई हिंसा के रूपायन के समय अप्रतिरोधी भाव ज्यादा प्रबल होता है। जबकि परोपकारी हिंसा का भी गहरा असर होता है। मीडिया अनुसंधान बताते हैं कि आठ से पन्द्रह साल तक के बच्चों को हिंसा की मंशा समझने में असुविधा होती है। इसके कारण ये बच्चे नकारात्मक दिशा में प्रेरित हो जाते हैं। अमूमन बदले की कार्रवाई के तर्क के बहाने हिंसा को वैध ठहराया जाता है। मसलन् एक फिल्म में बदले की कार्रवाई के रूप में जब करेंट के झटके दिए जाने का दृश्य दर्शकों को दिखाया गया तो उन्होंने इसे हिंसा नहीं माना।अनुसंधान बताते हैं कि दर्शकों के द्वारा हिंसा का फैसला इस तर्क के आधार पर किया जाता है कि बदले की कार्रवाई क्यों की गई ? उसका संदर्भ क्या था।कुछ अनुसंधान यह भी बताते हैं कि हिंसा की यथार्थवादी प्रस्तुति देखकर लोग उसका वास्तव जीवन में वैसे ही व्यवहार करना चाहते हैं।
हिंसा की निर्माण तकनीकी के कारण भी हिंसा के प्रति रवैयये पर असर पड़ता है। कहानी की नाटकीयता में ग्राफिक या खुल्लमखुल्ला जब हिंसा पेश की जाती है तो वह ज्यादा ध्यान खींचती है। तीन साल से लेकर पांच साल तक के बच्चों पर किए गए अनुसंधान बताते हैं कि बच्चे प्रोडक्शन के विविधतापूर्ण रूपों जैसे चरित्रों की त्वरित गतिविधियों ,तेजी से बदलते दृश्यों, अनपेक्षित स्थानों और ध्वनियों की सघनता से ज्यादा प्रभावित होते हैं। इसी कारण बच्चों को कार्टून सीरियल और फिल्में ज्यादा अपील करती हैं। वे कार्टून फिल्में हिंसा के कारण नहीं देखते। जैसाकि कुछ लोगों का मानना है।हिंसा में हथियारों के संदर्भ के सवाल पर जो अनुसंधान किए गए हैं उनमें मिश्रित परिणाम आए हैं।कुछ मानते हैं कि हिंसा में हथियारों का प्रयोग आक्रामक व्यवहार में इजाफा करता है।जबकि कुछ ऐसे भी शोध परिणाम सामने आए हैं जो बताते हैं कि हिंसा में हथियारों के प्रयोग का कोई असर ही नहीं होता। कामुक लक्ष्य से की गई हिंसा या कामुक संदर्भ में की गई हिंसा का दर्शकों पर गहरा असर होता है। इससे वास्तव जिन्दगी में आक्रामक व्यवहार में वृध्दि होती है। खासकर व्यक्ति का परिवारीजनों के प्रति आक्रामक रवैयया है।इसी प्रकार यदि कामुक फिल्म में हिंसा नहीं भी हो तक भी आक्रामकता में इजाफा होता है।कामुक फिल्मों का सेक्स प्रभाव ही नहीं होता बल्कि उससे आक्रामकता में भी वृध्दि होती है।मसलन् कामुक फिल्मों के प्रभाव के बारे में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि फिल्म देखने वाले मर्दों की कामेच्छा में इजाफा करने की बजाय इस तरह की फिल्में मर्दानगी के भावबोध को ज्यादा उभारती हैं। असल में कामुक फिल्मों का प्रभाव दर्शक की भाव दशा पर निर्भर करता है। मसलन् यदि किसी कामुक फिल्म में किसी की उकसावेभरी कार्रवाई का चित्रण होता है तो दर्शकों को ऐसी फिल्म उत्तेजित करेगी,असंतुष्ट करेगी।इसके विपरीत उत्तेजना रहित,संतोष देने वाली कामुक फिल्म या गैर उत्तेजक किस्म की फिल्म आक्रामकता कम नहीं करती। इसके विपरीत ऐसी फिल्में ज्यादा आक्रामक बनाती हैं। अगर कामुक फिल्मों का दर्शक तनाव में न हो तो उस पर इन फिल्मों का असर नहीं होता। कामुक फिल्मों का प्रभाव इस तथ्य पर निर्भर करता है किस तरह का कामुक चित्रण पेश किया जा रहा है। कामुक फिल्मों के दो काम हैं पहला उत्तेजित करना और दूसरा भावनात्मक तौर पर ध्यान हटाना।इन दोनों का यदि व्यग्रता के साथ संबंध स्थापित हो जाता है तो आक्रामक व्यवहार में इजाफा होता है। हल्की-फुल्की कामुक फिल्म आक्रामक व्यवहार को रोकती है या आक्रामक व्यवहार को रोकने की संभावनाएं पैदा करती है।
बिलकुल सही लिखा है आपने....
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