जेएनयू के हिन्दी-उर्दू के पूर्व छात्रों का समागम आगामी 27-29 अक्टूबर 2009 को होने जा रहा है। यह समागम इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इसमें पहलीबार नामवरजी नहीं हैं। जेएनयू का भारतीय भाषा केन्द्र नामवर के बिना सूना लगता है ,लगता है प्रो.चमनलाल ने नामवरजी की उस बात का ख्याल रखा है जो उन्होंने 'जेएनयू में नामवर' पुस्तक के लोकार्पण के समय दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में कही थी। नामवरजी ने कहा था '' मैं चाहता हूँ कभी मुझे सुनने के लिए भी बुलाया जाए''। नामवर जी के छात्रों ने लगता है उनकी बात रख ली है। देखते हैं आगे क्या होता है। आशा है इस मौके पर आदरणीय गुरूवर सुनने तो कम से कम जरूर आएंगे। वैसे भी यदि वे कार्यक्रम में आ धमके और छात्रों ने मांग कर दी तो उन्हें मंच पर आने से कौन रोक पाएगा । तब वह वक्ता ही होंगे। श्रोता नहीं।
जेएनयू के हिन्दी-उर्दू के भूतपूर्व छात्रों का यह समागम कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। पहला महत्व यह है कि इसमें नामवरजी नहीं होंगे। इस कार्यक्रम का दूसरा महत्व यह है कि इसमें हिन्दी-उर्दू के सवालों पर नए परिप्रेक्ष्य में बातें होंगी, मीडिया पर बातें होंगी। जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र के लिए यह विलक्षण आनंद का क्षण होगा। मुझे भी आने के लिए कहा गया था लेकिन अपनी निजी व्यस्तताओं के कारण मैं शामिल नहीं हो पा रहा हूँ। यह मैंने प्रो.चमनलाल और डा. देवेन्द्र चौबे को बोला भी है,वे समझते हैं।
कई चीजें दिमाग में कौंध रही हैं जिनसे हिन्दी-उर्दू की दशा पर रोशनी पड़ती है। इस कार्यक्रम में तीन बडे स्टार हैं उर्दू के मोहम्मद हसन ,हिन्दी से केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडेय। ये तीनों इस कार्यक्रम की प्रधान शोभा हैं। जेएनयू के बाहर ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि नामवरजी ने जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र को बनाया, यह बात अंशत: सच है। सच का दूसरा पहलू यह है कि उर्दू में प्रो.मोहम्मद हसन ने जो काम किया है वैसा हिन्दी-उर्दू में किसी ने नहीं किया है,यह सारा काम जेएनयू में रहकर ही हुआ है और केदारजी की संपदा कविता ही नहीं है बल्कि एक शानदार शिक्षक के रूप में उनकी पढाने की कला सबसे बडी उपलब्धि रही है,केदारजी जब कविता पढाते हैं तो आप कविता को जिंदा महसूस करते हैं। मैंने उनकी कक्षा में निराला की 'सरोज स्मृति' कविता का वह व्याख्यान सुना है जिसमें वे कविता पढा रहे थे और समूची कक्षा रो रही थी। भावविभोर करके पढाने वाले वह अद्वितीय शिक्षक हैं। केदारजी की कविता के रूमानी और अभिजन भावबोध के निर्माण में जेएनयू की छाप है,यह बात दीगर है कि बार-बार उन्हें गांव से आलोचक जोड़ देते हैं। केदारजी स्वभाव और व्यवहार में इतने शालीन, सभ्य,विनम्र कि उनकी प्रतिकृति खोजना असंभव है। केदारजी की एक और खूबी है कि उन्होंने शिक्षक के नाते कभी किसी छात्र या सहकर्मी शिक्षक का अहित नहीं किया। जबकि हिन्दी के शिक्षकों में यह आम बीमारी है कि वे आए दिन अपने छात्रों का अहित करते रहते हैं।मैंने ऐसा हार्मलैस व्यक्तित्व नहीं देखा।
हिन्दी आलोचना नामवरजी की ऋणी है। लेकिन जेएनयू की मेधा,शोध में नयी खोज और नए परिप्रेक्ष्य में साहित्य के इतिहास और साहित्य के समाजशास्त्र को देखने का जो नजरिए प्रो.मैनेजर पांडेय ने दिया है वह हिन्दी में बेजोड़ है। हिन्दी को साहित्य का समाजशास्त्र पांडेय जी के जरिए ही प्राप्त हुआ। आज भी अपनी स्वाभाविक ठहाकेदार हंसी के बीच पांडेयजी नयी चुटीली बात कह जाते हैं। उर्दू की प्रगतिशील परंपरा को आधुनिकतावादियों के हमलों से बचाने में प्रो.मोहम्मद हसन के लेखन की शानदार भूमिका रही है, उन्होंने उर्दू के उस स्कूल की जमकर मुखालफत की है जिसे आज उर्दू के आधुनिकतावादी अमेरिकीसरपरस्ती में चला रहे हैं। उर्दू को अमेरिकीसरपरस्ती से मुक्त कराने में मोहम्मद हसन की केन्द्रीय भूमिका रही है। उन्होने ही पहलीबार जेएनयू में मीडिया पर शोध कराने का कार्य आरंभ किया। उनके पहले छात्र कैशर शमीम ने उर्दू मीडिया पर नए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य के साथ बेहतरीन रिसर्च की थी। ऐसी रिसर्च उस समय तक हिन्दी में नहीं हुई। यह शोध ऐसे समय हुई जब हिन्दी-उर्दू वाला मार्शल मैकलुहान का नाम तक नहीं जानता था। मैकलुहान और दूसरे मीडिया सिद्धान्तकारों के परिप्रेक्ष्य में की गई यह हिन्दी-उर्दू की पहली रिसर्च थी।यह किताब के रूप में प्रकाशित हो चुकी है।
इस विभाग को जेएनयू के मैनस्ट्रीम लोकतांत्रिक छात्र राजनीति के वातावरण का हिस्सा बनाने में इस विभाग के छात्रों की बडी भूमिका है। यह सच है कि जेएनयू बदला है। उसमें पहले जैसी गर्मी,विचारों की टकराहट, शोध की बेचैनी कम हुई है। इसके बावजूद जेएनयू के छात्रों ने पचासों ने नए विषयों पर अनुसंधान किया है। इसका हिसाब लगाया जाना चाहिए। काश मैं इस मौके पर शामिल हो पाता।
हिन्दी-उर्दू के दिग्गजो के मिलन को सलाम
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