"आल्हा-ऊदल और बुन्देलखण्ड" (लेखक-कौशलेन्द्र यादव, ARTO-बिजनौर) पुस्तक को लेकर एक विवाद खड़ा हो गया है. प्रथम खंड में सम्मलित अंतिम चैप्टर "1857 की झूठी वीरांगना-रानी लक्ष्मीबाई" को लेकर ही इस पुस्तक का तमाम लोगों द्वारा विरोध किया जा रहा है, यहाँ तक कि लेखक के सर की कीमत भी 30,000 रूपये मुक़र्रर कर दी गई है. अब लेखक के पक्ष में भी तमाम संगठन आगे आने लगे हैं. सारी लड़ाई इस बात को लेकर है कि क्या इतिहास कुछ छिपा रहा है ? क्या इतिहासकारों ने दलितों-पिछड़ों के योगदान को विस्मृत किया है ? आप भी इस चैप्टर को यहाँ पढ़ें और अपनी राय दें-
राम शिव मूर्ति यादव
राम शिव मूर्ति यादव
इस विवाद की चर्चा मैंने भी हिंदुस्तान अख़बार में पढ़ी थी...पर इतिहास को सच्चाई स्वीकारने से नहीं रोका जा सकता.
ReplyDelete...यह तो सच ही है कि यदि मातादीन ने मंगल पांडे को नहीं भड़काया होता तो मंगल पांडे का जमीर न जगा होता. इस पर विभूति नारायण राय का एक सारगर्भित लेख भी मैंने पढ़ा था.
ReplyDeleteअतीत के बारे में कुछ कहना बड़ा मुश्किल कार्य है, सो नो कमेन्ट.
ReplyDeleteअजी कार्य में दम हो तो चर्चा होना स्वाभाविक भी है....ब्राह्मणवादी शक्तियों को अपना विरोध कब बर्दाश्त हुआ है. वे तो आरंभ से ही इतिहास की व्याख्या आपने पक्ष में करते रहे हैं.
ReplyDeleteYe to Vidambna hai@!
ReplyDeleteEk bar fir se Brahmanvadi banam Dalit lekhan....dekhiye age-age hota hai kya.
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