भड़ास blog
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...
29.12.09
लो क सं घ र्ष !: न्याय में देरी का अर्थ बगावत नहीं
माननीय
उच्चतम
न्यायलय
के
मुख्य
न्यायधीश
न्यायमूर्ति
बालाकृष्णन
ने
कहा
कि
न्याय
में
देरी
होने
से
बगावत
हो
सकती
है
।
इस
बात
का
क्या
आशय
है
ये
आमजन
की
समझ
से
परे
बात
है
न्यायपालिका
ने
त्वरित
न्याय
देने
के
लिए
फास्ट
ट्रैक
कोर्ट्स
की
स्थापना
की
है
फास्ट
ट्रैक
न्यायलयों
में
अकुशल
न्यायधीशों
के
कारण
फैसले
तो
शीघ्र
हो
रहे
हैं
किन्तु
सुलह
समझौते
के
आधार
पर
निर्णीत
वादों
को
छोड़
कर
99
प्रतिशत
सजा
की
दर
है
जिससे
सत्र
न्यायलय
द्वारा
विचारित
होने
वाले
वादों
की
अपीलें
माननीय
उच्च
न्यायलय
में
पहुँच
रही
हैं
।
जिससे
माननीय
उच्च
न्यायलयों
में
कार्य
का
बोझ
बढ़
जाने
से
वहां
की
व्यवस्था
डगमगा
रही
है
और
वहां
पर
न्याय
मिलने
में
काफी
देरी
हो
रही
है
कुछ
प्रमुख
मामलो
में
जनभावनाओ
के
दबाव
के
आगे
उनकी
पुन
:
जांच
वाद
निर्णित
होने
के
बाद
प्रारंभ
की
जा
रही
है
।
अपराधिक
विधि
का
मुख्य
सिधान्त
यह
है
की
आरोप
पत्र
दाखिल
हो
जाने
के
बाद
पुन
:
विवेचना
नहीं
होनी
चाहिए
और
न
ही
संसोधन
की
ही
व्यवस्था
है
।
कानून
में
बार
-
बार
संशोधन
से
न्याय
की
अवधारणा
ही
बदल
जाती
है
।
न्याय
का
आधार
जनभावना
नहीं
होती
है
।
साक्ष्य
और
सबूतों
के
आधार
पर
वाद
निर्णित
होते
हैं
।
जेसिका
पाल
,
रुचिका
आदि
मामलों
में
न्यायिक
अवधारणाएं
बदली
जा
रही
हैं
जबकि
होना
यह
चाहिए
की
विवेचना
करने
वाली
एजेंसी
चाहे
वह
सी
.
बी
.
आई
हो
पुलिस
हो
या
कोई
अन्य
उसकी
विवेचना
का
स्तर
निष्पक्ष
और
दबाव
रहित
होना
चाहिए
जो
नहीं
हो
रहा
है
।
मुख्य
समस्या
अपराधिक
विधि
में
यह
है
जिसकी
वजह
से
न्याय
में
देरी
होती
है
।
न्याय
में
देरी
होने
का
मुख्य
कारण
अभियोजन
पक्ष
होता
है
जिसके
ऊपर
पूरा
नियंत्रण
राज्य
का
होता
है
।
राज्य
की
ही
अगर
दुर्दशा
है
तो
न्याय
और
अन्याय
में
कोई
अंतर
नहीं
रह
जाता
है
।
आज
अधिकांश
थानों
का
सामान्य
खर्चा
व
उनका
सरकारी
कामकाज
अपराधियों
के
पैसों
से
चलता
है
।
उत्तर
प्रदेश
में
पुलिस
अधिकारियों
व
करमचारियों
का
भी
एक
लम्बा
अपराधिक
इतिहास
है
कैसे
निष्पक्ष
विवेचना
हो
सकती
है
और
लोगो
को
इन
अपराधिक
इतिहास
रखने
वाले
अपराधियों
से
न्याय
कैसे
न्याय
मिल
सकता
है
? जनता में अगर बगावती तेवर होते तो हम लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद के गुलाम नहीं होते ।
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