28.12.09

शांति का मौन संदेश दे गए अशोक सर

जाओ बेटा... छा जाओ... 29 नवंबर को अशोक सर की जुबान से मेरे लिए ये आखिरी संबोधन था... मुझे याद है वीओआई के न्यूजरुम में ये शब्द कहते हुए उनके चेहरे पर मुस्कान का स्थायी भाव कायम था… दोनो हाथ पैंट की पॉकेट में डालकर खड़े-खड़े वो अपने पैरों को हिला रहे थे... मेरा तबादला आउटपुट से रांची ब्यूरो मे कर दिया गया था... इसलिए मैं अपने सभी सहकर्मियों से मुलाकात करने गया था। पता नहीं था कि ये अशोक सर से जिंदगी की आखिरी मुलाकात होगी... अशोक सर ऐसे शख्सियत के मालिक थे जैसा हर पत्रकार बनना चाहता है॥ लेकिन नहीं बन पाता क्योंकि हर किसी के कूवत की बात नहीं कि... वो खबरों की आपाधापी और फुल प्रेशर के बीच बिना चीखे चिल्लाएं... सिर्फ मुस्कुराते हुए अपने काम को अंदाम दे डाले... मेरे लिहाज से अशोक सर मीडिया के महात्मा थे क्योंकि प्रोफेशनल लाइफ में वे काम, क्रोध, मद औऱ लोभ से उपर उठ चुके थे।


उनसे मेरा परिचय साल 2008 के अप्रैल माह में हुआ था.. तब वो वीओआई में आउटपुट के शिफ्ट इंचार्ज थे... पहले दिन ही की मुलाकात में अशोक सर मेरे आदर्श बन गए। उन्हें लोगों की बड़ी अच्छी समझ थी, वो हुनर को परखना और उसे निखारने की कला जानते थे। टीवी की कॉपी कैसे लिखी जाती है.. ये मुझे उन्होंने ही सिखाया। अशोक सर मुझे मेरे बॉस कम औऱ पिता तुल्य दोस्त ज्यादा लगते थे। वीओआई ज्वाइन करने के बाद जब वो अपनी फैमिली को लाने हैदराबाद गए थे... तो आते वक्त वहां से मिठाई लेकर आए थे। सबको एक-एक मिठाई देने के बाद मुझे पूरा पैकेट ही दे दिया औऱ कहा कि बेटा खाते रहे औऱ लिखते रहो... मेरे प्रति उनका व्यवहार वैसा ही था जैसा एक पिता का अपने नादान बेटे के साथ होता है।

एक बार की बात है कि गर्मी के दिन में पसीने से लथपथ मैं पैदल ही अपने साथी के साथ ऑफिस की ओर बढ़ा जा रहा था.... तभी पीछे से किसी ने मुझे आवाज लगाई... मुड़कर देखा तो अशोक सर अपनी कार का शीशा खोलकर मुझे बुला रहे थे। पास गया तो बोले कि बैठ जाओ मैं भी ऑफिस ही जा रहा हूं। मेरी अक्सर काम के मामले में लोगों से लड़ाई हो जाया करती थी। न्यूजरुम में कई बार जब मैं गुस्से में आ जाता था तो वो पास आकर मुझे शांत कराते थे, समझाते थे बेटा कूल रहो। अशोक सर मीडिया की गंदी राजनीति से हमेशा दूर रहते थे। यही वजह है कि उनसे नाकाबिल और जूनियरों को बड़े-बड़े पोस्ट मिल गए लेकिन उन्हें नहीं मिला। एक बार तो उन्हें पंजाब-हरियाणा चैनल का हेड भी बनाया गया था। लेकिन 13 दिनों बाद ही उन्हें उस पोस्ट से हटा दिया गया। वीओआई में अशोक सर का खूब इस्तेमाल हुआ जब जिस डेस्क पर योग्य लोगों की कमी होती थी उन्हे वहां भेज दिया जाता था... लेकिन पद और वेतन का अतिरिक्त लाभ नहीं दिया जाता था।

वीओआई जब दोबारा से खुला तो पहले उन्हें मना कर दिया गया था। वो ऑफिस के बाहर चाय की दुकान पर तनाव में बैठे हुए थे। मैंने कहा कि सर कहीं और बात कीजिए तो बोले कि यार मुझे कोई नहीं जानता, ना ही मेरे पास किसी का नंबर है। क्योंकि वो सिर्फ काम से ही काम रखते थे औऱ काम की बदौलत ही अपनी पहचान चाहते थे। उन्हें वीओआई में दोबारा नहीं बुलाया गया है... ये जानकर चौथी दुनिया के डॉ.मनीष कुमार स्तब्ध रह गए थे लेकिन बाद में मैनेजमेंट को उनकी काबिलियत के चलते उन्हें बुलाना ही पड़ा।

वीओआई में मेरी सौरव कुणाल और राकेश ओझा की तिकड़ी थी। हम तीनों में बढ़िया कॉपी लिखने को लेकर रोज बहस होती थी। और अगर कहीं कोई उलझन आ जाती तो हम सीधा अशोक सर के पास जाते थे क्योंकि वहां हमारी उलझन तो सुलझती ही थी साथ में कुछ नया भी सीखने को मिल जाता था। हम तीनो खूब सिगरेट पीते थे, बिना किसी से छिपाए दबाए धुंआ उड़ाते थे लेकिन जयंत अवस्थी और अशोक सर के सामने कभी भी सिगरेट पीने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि हम उन्हें अपना गार्जियन मान चुके थे। लेकिन आज हमारे गार्जियन हमें छोड़कर चुपके से चले गए। जाने का अंदाज भी वैसा ही रहा जैसा ऑफिस में आने का औऱ काम करने का... बिना शोर शराबे के मुस्कुराते हुए। उनकी मुस्कान वीओआई के तनाव भरे माहौल में लोगों को हिम्मत देने का काम करती थी, जिनके नहीं होने की कमी अब वहां हर किसी को महसूस होगी। जिन लोगों ने भी अशोक सर के साथ एक बार भी काम किया है.. मेरा दावा है कि वो उन्हें कभी नहीं भूल पाएंगे। क्योंकि इंसानों को कैसे काम करना चाहिए इसका हुनर मैंने सिर्फ उनमें देखा है।

आखिरी में दो शब्द मेरी गुरु मां और उस भाई के बारे में जिसके पिता क्रिसमस गिफ्ट दिए बिना ही, हम सबको शांत रहने का मौन संदेश देकर चले गए। मैंने भी ग्यारह की उम्र में पिता को खो दिया था इसलिए मुझे उस दर्द का एहसास है। जब भी जरुरत पड़े याद कीजिएगा...

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