लाल कृष्ण आडवाणी का पद त्याग भारतीय जनता पार्टी में उत्पन एक द्वंद की तरह है |सोमनाथ से शुरू हुई राजनितिक रथ यात्रा जीवन के ८२ वें बसंत में रूक गयी है | इस पार्टी के युग पुरुष कहे जाने वाले व्यक्तित्व ने खांटी हिन्दुत्व की एक अलग पहचान बनायी थी | देश की राजनीति में एक अलग इतिहास कायम किया था| लेकिन पिछले लोक सभा चुनाव की हार के बाद पार्टी और खुद आडवाणी भी इस हार कों शायद पचा नहीं पाए |
वजह कुछ भी क्यों ना हो लेकिन श्री राम और हिन्दुत्व जैसे संवेदनशील सीढियों पर चलने वाली इस पार्टी का अस्तित्व अब डगमगाता दिख रहा है | लोकसभा चुनाव के हार के बाद एक बाद तो बिलकुल स्पष्ट हो गयी है की भारतीय जनता पार्टी उन समाजिक समूहों यानी युवा और मध्यवर्ग को जोड़ने में असफल है, जिन्होंने 90 के दशक में भरपूर जोश के साथ उनका समर्थन किया था| धीरे धीरे ही सही लेकिन कद्दावर नेताओं की कमी साफ़ देखी जा सकती है |
आज राजनितिक पार्टियों में युवा वर्ग की कों जोड़ने की बात और कमान कों युवा नेत्रित्व सौपा जाना इस बात कों इंगित कर रहा है की भाजपा भी परिवर्तन के ऐसे दोराहे पर खडी है जहाँ से उसका गंतव्य उसे ही दूर होता दिखा रहा है | धर्म का सहारा लेकर की गयी राजनीति शायद इसे वो स्थायित्व नहीं प्रदान कर सका जिस बुनियाद पर एक ऐसा मकान बनाए जाता जिसे राजनितिक हलचल की कोई भी आंधी गिरा नहीं पाती |
कयासों का बाज़ार गर्म है लेकिन सच्चाई यह है की संघ का बर्चस्व इस राजनितिक पार्टी कों एक नयी दिशा और नए आयाम की तरफ ले जाने की कोशिश में है |ये तो कुछ दिनों बाद ही पता चलेगा की देश की इस लोकतांत्रिक पार्टी के भविष्य का वर्तमान कैसा होता है |
पार्टी के सबसे बड़े और वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी में ऐसी क्षमता नहीं रही कि वो मतदाताओं को अपनी ओर झुका सकें जैसा कि एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा कर दिखाया था
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