Faraz Khan
आज भी याद है, वो बचपन जब परियों की कहानी हकीकत होती थीं।
गुज़रते वक्त के साथ परियां कहानी हो गईं,
एक खूबसूरत ख्वाब जिसे बचपन कहा था,
खुशियां मां की वो मुस्कुराहट थी, डर उसका रूठ जाना था,
अब्बा की दी अठन्नी होती थी कमाई, दादा की गोद में बिस्तर मस्ताना था।
दादा के दालान की हरी घास में वो धूप का बहना,
वो बारिश की पहलॊ बूंदों से मिट्टी की महक उड़ना,
आज भी लगता है कि वो कल ही की बात है,
अभी तो रात हुई है कल सुबह देखना वही नर्म हाथ तुम्हें उस गर्म कम्बल से उठायेंगे,
खुद हल्के से गुनगुने पानी से नहलायेंगे,
वो उजड़ा सा बस्ता लेकर मैं स्कूल को जाउंगा, सबक जो याद ना किया उस पे मार खाउंगा।
पहले घण्टे में ही डब्बा खत्म, और खाने की घण्टी तक तो सब कुछ हज़म,
उस अठन्नी का फ़िर वहीं काम आयेगा,
उसका साथी भी मिला तो जमूरा समोसा भी खायेगा।
ज़िन्दगी की रफ़्तार ने वो ख्वाब धुंधला कर दिया,
उस अठन्नी का क्या कसूर था जो उसे फ़कीर की कटोरी में तन्हा छोड़ दिया,
आज भी वो ठिठुरती है उस ठण्डी सर्द कटोरी में।
एक वक्त रहती थी गर्म उम्मीद से भरी मासूम मुठ्ठी में।
जब दिल की धढ़्कनों से हम रिश्ते पहचानते थे,
मां के सीने की गर्मी की आस में, रो रो कर उसकी नींद उजाड़ते थे।
आज भी उस मां की आंखों से नींद ओझल है, बस।
वजह, वो रोटी है, गोद नहीं, खामोश दीवारों का शोर है।
जहां सुकून और आराम था एक कमरे में, दादा, दादी, चाचा, अम्मा, अब्बा का साथ रहना था,
वो दरकी हुई कटोरियों में मिलके खाना, और अम्मा से बेहिसाब रोटियों का आटा गुंथवा देना, ।
आज सुकून के पैमाने पे कमरे तो ज़्यादा हो गये, लेकिन रिश्ते कम होते गये।
आज नौकर रोटिया गिन कर पकाता है,
और हम सेहत का नाम रख के उससे भी आधा खाते हैं।
लेकिन आज लेता हूं जब अपनी बेटी को गोद में,
तो परियां वापस हकीकत लगने लगती हैं,
उसकी वो नर्म उंगलियां जादू की छड़ी हैं
उसकी आंखों में मेरी हर दुआ की कबूलियत है,
उसका जादू वो महीन सी मुस्कुराहट है,
एक नन्ही सी जान ज़िंदगी में कैसा सैलाब लाती है,
वो बचपन जो खो गया था उसे वापस लाती है,
मेरी खुशियां अब तुझ से शुरु और तुझी पर खत्म हैं।
आज बरसों बाद मेरी आंखें मां की डांट से आने वाले आंसुओं से नम है.....
dil ko chhoo gayi
ReplyDelete"अच्छी कविता.."
ReplyDeleteप्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com