घटना - एक
थ्रूआउट फर्स्टक्लास और गोल्ड मेडलिस्ट अनन्य बाजपेई (26) मुंबई में भाई के साथ रहकर सीए की पढ़ाई कर रहा था. इस बार उसका अंतिम साल था. परीक्षा की तैयारी ठीक से न होने के कारन डिप्रेशन में आ गया. परीक्षा की तारीख नजदीक आने से उसका डिप्रेशन बढ़ता जा रहा था. मुंबई से वह कानपुर अपने घर आ गया. घर पर ही रहकर परीक्षा की तैयारी करने लगा. अपने कमरे के बाहर 'डोंट डिस्टर्ब' का बोर्ड लगाकर घंटों पढ़ता. डिप्रेशन इतना ज्यादा बढ़ा गया की एक दिन अनन्य बाजपेई ने कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. फांसी पर लटकाने से पहले अनन्य ने अपनी मां के नाम ख़त भी लिखा. उसने लिखा- 'मां आई लव यू! मैं आपसे बहत प्यार करता हूं, पढ़ाई के कारन थोड़ी उलझन है इसलिए हमें माफ़ कर देना...!!!'
घटना - दो
छत्रपति साहूजीमाहराज विश्वविद्यालय, कानपुर से बीबीए द्वितीय वर्ष का सनी (20) ने पढ़ाई के दबाव के कारन तनाव में आकर घर में चादर से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.
घटना - तीन
११ साल की नेहा काफी अच्छा नाचती थी. वह बूगी-वूगी सहित तीन टीवी रियलिटी शो में अपनी इस कला का लोहा मनवा चुकी थी. नेहा डांस के बजाय पढ़ाई पर ध्यान देने की माता-पिता की जिद की वज़ह से तनाव में आकर आत्महत्या कर लिया.
घटना - चार
कक्षा सात में पढ़ने वाले सुशांत पाटिल सोमवार की सुबह सात बजे स्कूल आए लेकिन क्लास में नहीं दिखे. हाज़िरी के व़क्त उनकी ग़ैरमौजूदगी देख उन्हें खोजा जाने लगा तो टॉयलेट में उनकी लाश झूलती पाई गई. कुछ विषयों में फेल हो जाने की वज़ह से तनाव में आकर सुशांत ने शौचालय में लटककर प्राण दे दिए.
घटना - पांच
मेडिकल की पढ़ाई करने वाली १८ साल की भजनप्रीत भुल्लर ने पवई स्थित अपने घर पर ख़ुदकुशी कर ली. वह सायकोथेरेपी की छात्रा थी और फेल हो चुकी थी.
घटना - छह
'नजफगढ़' के नंदा एंक्लेव में १९ साल की रीना ने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली. उसके पास से एक नोट मिला है जिसमें उसने अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी करने की बात लिखी है. वह कैर गाँव स्थित भगिनी निवेदिता कॉलेज में पढ़ती थी. उसके पिता श्री ओम फौज से रिटायर हैं. पुलिस को जांच में पता चला कि वह कुछ समय से तनाव में रहती थी.
घटना - सात
दक्षिणपुरी की रहने वाली हिमांशी के प्री-बोर्ड परीक्षा में कम अंक आए थे और वह तीन विषय में फेल हो गई थी. छात्रा की एक नोटबुक पुलिस को मिली है जिसमें उसने गत २५ दिसंबर को आए दिन मां द्वारा डांटने फटकारने की बात लिखी है. उसके परिजनों का आरोप है कि कम अंक लाने पर छात्रा के साथ स्कूल में गलत व्यवहार किया जाता था जिस कारण से उसने ख़ुदकुशी कर ली.
हम बचपन से सुनते और पढ़ते आए हैं कि शिक्षा व्यक्ति को स्वावलंबित बनाती है. अज्ञानता की ग्रंथियों को खोलकर उसमें ज्ञान का प्रकाश प्रवाहित करती है. पढ़-लिखकर व्यक्ति अपने साथ-साथ परिवार और देश का नाम रोशन करता है. किन्तु उपरोक्त घटनाएं यह दर्शाती हैं कि वर्तमान समय में शिक्षा स्वावलंबन का कारक न बनकर आत्महत्या का कारण बनती जा रही है. ऐसी शिक्षा किस काम की...?? जो आत्महत्या करने को मज़बूर कर दे. निःसंदेह यह आज एक चिंतन का विषय बन गया है कि अतिआधुनिकता, अतिमहत्वाकांक्षा और अतिभौतिकता के दो पाटों के बीच पिस रहे अपने बच्चों का हमने कहीं उनका बचपन तो नहीं छीन लिया है...???
आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो ये आंकड़े निश्चित रूप से डराने वाले हैं. आए दिन बच्चों की आत्म्हाया करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. अभिभावकों की असीमित अपेक्षाओं के दबाव से बच्चे उदासीनता में जीने को मज़बूर होने लगें हैं. इन घटनाओं के पीछे माता-पिता की आपसी अनबन और पढ़ाई का बढ़ता दबाव प्रमुख कारण रहा है. जिसके चलते बच्चे आत्महत्या करने को उत्प्रेरित होने लगे हैं. मनोचिकित्सकों का कहना है कि वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक समय में माता-पिता "आइडियल चाइल्ड सिंड्रोम" से ग्रस्त होने के कारण अपने बच्चे को स्पेशल किड से स्मार्ट किड और स्मार्ट किड से सुपर किड बनाने की भावना बलवती हुई है. अतिमहत्वाकांक्षी हो चुके माता-पिता के सज़ा बच्चे भुगतने को अभिशप्त है.
बच्चों में आत्महत्या के लिए उकसाने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है उनकी ज़िन्दगी में बढ़ता एकाकीपन. पहले यह एकाकीपन अतिसमृद्ध और संपन्न लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा था. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ सालों से शहरी जीवन जितना जटिल और महंगा हो गया है उसके चलते सामान्य माध्यमवर्गीय घरों की महिलाओं का नौकरी करना भी अनिवार्य हो गया है. पहले माता-पिता के बीच भी अनबन होती थी किन्तु बच्चों की ज़िंदगी में उनकी दूरी नहीं थी. पहले दादा-दादी का प्यार था. गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल जाने की उत्सुकता रहती थी. इन सबकी जगह अब टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल ने लिया है. आत्महत्या का दूसरा प्रमुख कारण शिक्षा का वर्तमान ढांचा है. शिक्षा के सरौते ने बच्चों से बचपना काटकर उन्हें रोबोट में तब्दील कर दिया है.
अभिभावकों को अपना मूल्यांकन करना होगा. अपने सपनों का लबादा बच्चों के बचपन पर लादने से काम नहीं चलेगा. यदि हम चाहतीं/चाहते हैं कि " मेरा नाम करेगा रोशन जग में राज दुलारा/दुलारी", तो बच्चों के बचपन पर अपनी अपेक्षाओं की आग न सुलगाएं. कहीं उस आग में हमारे बच्चे गोल्ड मेडल और नंबर की दौड़ में अपनी जीवनलीला समाप्त न कर लें. अभिभावक पहले स्वयं को अनुशासित करें. क्योंकि बच्चों के प्रथम शिक्षक माता-पिता ही होते हैं. यदि माता-पिता का व्यवहार अनुशासित रहेगा तो बच्चों का बचपन शायद बच जाए.
फिलहाल ज़िन्दगी से जुड़ी कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं गौर फरमाएं....
"तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी
हैरान हूं मैं
तेरे मासूम सवालों से
परेशान हूं मैं
जीने के सोचा ही नहीं
दर्द संभालने होंगे
मुस्कुराए तो मुस्कुराने के
क़र्ज़ उतारने होंगे...!!"
प्रबल प्रताप सिंह
आपकी पोस्ट ने दिखा दिया है, जीवन का आईना.
ReplyDeleteजीते हैं पर जीने की कोई कला हमें आई ना!
कला हमें आई ना,छोटी-छोटी बातें हमको.
जीवन समाप्त करने को प्रेरित करती हैं हमको.
कह साधक कवि परम्परा बन गई है पूरी घोस्ट.
जीवन को आईना दिखा रही है आपकी पोस्ट.
sahiasha.wordpress.com
बहुत खुब साधक जी टिप्पणी करने कोई आप से सीखे.......
ReplyDeleteSadhakji or Sunitaji comment ke liey dhanyvaad...!!
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