19.2.10

सफरनामा

रातों रातों किये सफ़र की,
दिनभर कहानी लिखता रहा,
धडों मे बंटी देख धरती को,
शुरू में ही खत्म हुआ सा,
कभी लगा,
बैरंग आये खत सा,
अपनी अपनी पगडण्डी पर,
जाते देखे सबको न्यारे,
आ गई इठलाती मशीनें सडकों पर,
कोने में रोते हैं खेत यहां,
मानसरोवर सी यात्रा को,
हवाई ज़हाज में बैठा कोई,
कोई पैदल नाप रहा है,
कम मेहनत में मंझिल मंझिल,
घर बैठे कोई छाप रहा है,
मेहनतकश है भूखा प्यासा,
यही कहानी,यही लेख है,
राह के राहगिरों का,
अनुभव सारा बोल रहा है,
सुनी सुनाई बात नही है,
’दो बून्द ज़ीन्दगी’ की पी कर भी,
लंगडाये है बच्चे,
जीवन की इन घाटियों में,
बिना टीकों के ही,
गरिबों ने जाये हैं बच्चे,
उम्रपार बुज़ुर्ग भी कर्मठ देखें हैं,
कारवां के संगी बने,
ठाले युवा भी,
नई राह पर ढंग-ढांग वही,
बराबरी की हौड है बस,
सजा के मण्डली अपनी अपनी,
राग आलापे पहलू सारे,
सफ़र पुराना और नया भी,
लगा पेचिदा कहीं कहीं पर,
फ़र्राटे से भागते चोर सा,
कभी सडक पर रगड खाकर,
चलते मिले भिखारी की तरह,
बदले राही,राह बदल गई,
निसां बाकी हैं ज्यों के त्यों,
हल्की फ़ुल्की बची हुई,
गांवों मे रह गई बस बाकी,
चिठ्ठी-पत्री और हिचकी,
शहरों की होडाहोडी में,
बडे घरों के हर कमरे में,
लगे मिलेंगे फोन कई,
जूते खोलकर मतदान करते,
और धोक लगाते मतपेटी को,
रहे नज़ारे इसी सफ़र के,
मारामारी के इस जीवन में
अपनापन कहीं छुट गया है,
अमीर की अटारी छू गई अंबर,
गरीब की कुटिया मैली अब तक...........



रचना:माणिक



 






1 comment:

  1. "सकारात्मक लिखा कीजिए माणिक जी,वैसे लिखा अच्छा है बस टाइपिंग गड़बड़ियाँ हैं..."
    प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com

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