21.3.10

प्रलय अब होने को ही है.......!!!

चारों तरफ धूप फैलती जा रही है......गर्मी का साम्राज्य सब दिशाओं को अपनी आगोश में लेता जा रहा है ...और अमीर लोगों के घरों में कूलरों,.सी.और सबको ठंडक पहुँचाने के अन्य साधन सर्र-सरर ....की आवाजें करते धड़ल्ले से चलने लगें हैं...जहां तक इनकी हवा जाती है वहां तक तो सब ठीक-ठाक सा लगता है मगर उसकेबाद गरमी की भयावहता वैसी की वैसी...यानी कि विकराल और खौफनाक....!!

आदमी को मौसमों से हमेशा से ही डर लगता रहा है....मगर उसके बावजूदउसने जो कुछ भी धरती पर आकर किया है उससे मौसमों का मिजाज़ खराब ही हुआ है...आदमी की करनी से से वो क्रमश भड़कता ही जा रहा है....!!

आदमी की चाहना भी बड़ी अजीब और बिलकुल विपरीत सी होती है....आदमी से जो भी चीज़ ईजाद होती है वो होती तो दरअसल उसके सुकून के लिए है मगर उसके ठीक उल्टा उससे धरती का वातावरण खराब से और खराब हुआ जाता है खराब भी क्या ऐसा-वैसा....!!जीने लायक भी नहीं रहता धरती का वातावरण ....

किसी जमाने में बेशक आदमी धरती के रहमो-करम पर निर्भर होता होगा..........अब तो धरती की आबो-हवा आदमी के रहमो-करम पर निर्भर हो चुकीहै...वो चाहे तो अपनी अनाप-शनाप इच्छाएं त्याग कर अभी भी धरती को उसका सुगढ़ स्वास्थ्य लौटा कता है और धरती के आँचल के साए में किसी माँ के अपनापे की भांति किल्लोल करता हुआ आनंद पूर्वक जी-खा-खेल सकता है !!

क्या यह बहुत अजीब सी बात नहीं है कि आदमी को जीना धरती पर ही होता है उसे अपनी सारी इच्छाएं धरती पर धरती के मार्फ़त ही पूरी करनी होती हैं और इसके उल्टा धरती ही जैसे उसके रास्ते में रुकावट बन जाती है हालांकि धरती ने कभी भी किसी को भी कुछ भी रने से रोका नहीं है....मगर आदम का हर कार्य जैसे एक दलदल की तरह होता है एक तरफ तो वो सुविधाओं के बीच सुकून से जीना चाहता है....तो दूसरी तरफ उसी के कार्यों का परिणाम उसे क्रमश मौ की और ले जाता हुआ प्रतीत होता है और मज़ा यह मौत की समूची भयावहता के बावजूद भी आदमी अपने लिए वाही सुविधाएं चुनता है,बुनता है,जो उसके तत्काल को बेहतर बनाती है हालांकि यह भी सच ही है कि आदमी ये भी जानता है...कि एक क्षण ही बाद आने वाला भविष्य ही उसके उस क्षण का तत्काल होगा....मगर फिर भी......!!!

तो मौसम है कि बिदकता ही जाता और आदमी नाम का यह जीव हर प्रकार के "कोपेनहोगेनों" और धरती को वापस स्वर्ग बनाने के अपने तमाम दावों-प्रतिदावों के बावजू उसी दलदल को लगातार बढ़ता ही जाता है जिसमें कि धंसकर उसकी काल जान जानी निश्चित है और बस इसी करके मौसम बिदक रहें हैं...आदमी के साथ धरती का समूचा जीवि जगत भी रोता जा रहा है,आदमीएक ऐसा भयानक जीव है जिसने

सिर्फ धरती का ही नहीं अपितु समूचे अन्तरिक्ष का "शिकार" कर डाला है, अब ये बात अलग है कि वहखुद अपना शिकार बन चूका है.........!!

खुदा ने जब आदमी को धरती पर भेजा होगा तब शायद यही सोचा होगा कि यह जीव समूची धरती को रंग बिरंगा कर डालेगा और इसके जीवन को सुखी और समृद्द बनाएगा.....और अब यह सोच-सोच कर तड़पता होगा...अपना सर धुनता होगा.....कि हाय उसने आदमी को क्यूँकर बना डाला......और शायद मौसमों का मिजाज़ खुदा खुद बदल रहा हो....ताकि किसी तरह धरती पर प्रलय जाए और बेशक हज़ारों प्राणी काल-कलवित हो जाएँ मगर आदमी नाम यह जीव दा के लिए धरती से विदा हो जाए....!!

दुनिया के बाकी प्राणियों......बेशक आने वाले समय में तुम सब नष्ट हो जाने वाले हो ओ....क्यूंकि यः भी सच है कि गेहूं से साथ घुन भी पिसता है.....तो आदमी के साथ-साथ तुम सबको भी मिट जाना ही है....मगर ओ दुनिया के अन्य समस्त प्राणियों.....ये जान लो कि ये बात भी उतनी ही सच है कि उपरवाला यः सब जान-बूझकर ही कर रहा है.....उसके मन में तो सदा से ही यह सपना रहा था कि दुनिया आनंदपूर्ण रहे और उसी की पूर्ति के लिए और दुनिया को स्वर्ग बनाने के ही उसने आदमी को भी यहाँ भेजा था....मगर उसे क्या मालूम था कि.........!!!!????

हे दुनिया के समस्त प्राणियों उपरवाला फिर से यानि नए सिरे से नयी दुनिया बसने जा रहा है... जिसमें आदमी के लिए कोई जगह मुमकिन नहीं होगी....और तुम सब के सब एक जुट होकर इस समूची धरती को अपना समझकर मिलजुलकर राज करोगे....एक दुसरे के संग अपने पूरे प्रेम-भाव के साथ रहोगे....अब यह मत सोचने लगना कि हाय....कि आदमी के बगैर तुम्हारी ये दुनिया कैसी होगी....!!खुदा ने तो आदमी को तुम्हारे रूप में बहुत-कुछ दिया...मगर आदमी ने तुमको क्या diyaa ........!!!????


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