सभ्यता एक मोहक शब्द है. इसके प्रयोग मात्र में यह भाव आता है मानो यह अत्यंत गुणकारी और लाभप्रद है. पर तमाम सुंदर शब्दों की तरह यह भी यूरोपीय बोधोदय के गर्भ से निकला हुआ है . इस धारणा को वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने का ऐतिहासिक दायित्व उन्हीं शक्तियों ने लिया जिसने सारी दुनिया में औद्योगिक पूंजीवाद को फैलाया. अंध औद्योगिकीकरण और इससे जुडे सभ्यता संकट पर सबसे पहले आवाज भी यूरोप में ही उठी. जिन्हें 'रोमांटिक' चिंतक माना जाता है उनकी तरफ से लगातार यांत्रिक औद्योगिकरण और इससे उपजी श्रमविमुखता के विरूद्ध लगातार लिखा जाता रहा. हालांकि गांधी यूरोपीय रोमांटिक चिंतकों से बुनियादी रूप से अलग हैं क्योंकि वे आधुनिकता के उत्तर-बोधोदय संदर्भ से परे हट कर सोच रहे थे. यह वह बुनियादी बात है जिसके कारण उनके लिए व्यक्ति और वैश्विक आदर्श के बीच का द्वन्द्व उस तरह जटिल नहीं होता जैसा कि संभवत: रवीन्द्रनाथ के यहाँ होता है. इस प्रसंग पर बाद में लौटते हैं.
इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि 1908 में गांधी हिन्द-स्वराज के माध्यम से औद्योगिक समाज की समस्याओं और उसके अंतर्विरोधों पर जिस तरह की बातें कह रहे थे वह उन दिनों कई पश्चिमी विद्वानों के लेखन में उपलब्ध था. जब हिन्द स्वराज लिखा जा रहा था तब इंग्लैंड में सभ्यता के खिलाफ मंडल कायम हो रहे थे और एक लेखक ने तो 'सभ्यता, उसके कारण और उसकी दवा' नामक किताब भी लिखी थी. एक समाजशास्त्री ने उल्लेख किया है कि गांधी हिन्द-स्वराज लिखते समय एडवर्ड कारपेंटर की इस पुस्तक - सिविलाइजेशन: इट्स काज एंड क्योर से बहुत प्रभावित थे. गांधी ने खुद 'सभ्यता के दर्शन' अध्याय में इस पुस्तक का उल्लेख किया है.कम से कम तालस्तोय के राजनैतिक लेखन और रस्किन के अनटू हिज लास्ट से हम सब परिचित हैं जिन्होंने इस नयी सभ्यता और उनके आदर्शों पर तीखी टिप्पणियां की. गांधी जब लंदन में कानून की पढाई कर रहे थे और जब दक्षिण अफ्रीका में सत्य से अपने प्रयोग कर रहे थे वे लगातार इन विचारों से जुडे रहे थे.
हिन्द स्वराज के गांधी और पश्चिमी सभ्यता के संकट पर विचार करने के लिए गांधी के शब्दों से ही बात शुरू की जा सकती है. इस पुस्तक में गांधी कहते हैं- " मेरी पक्की राय है कि हिन्दुस्तान अंग्रेज़ों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में फंस गया है... सब धर्मों के अंदर जो 'धर्म' है वह हिन्दुस्तान से जा रहा है." आगे वे जोडते हैं-" सभ्यता की होली में जो लोग जल मरे हैं , उनकी तो कोई हद ही नहीं है. उसकी खूबी यह है कि लोग उसे अच्छा मानकर उसमें कूद पडते हैं. फिर वे न तो दीन के रहते हैं और न दुनिया के." गांधी अन्यत्र लिखते हैं कि " यह सभ्यता तो अधर्म है और यह यूरोप में इतने दर्जे तक फैल गयी है कि वहां के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं... यह शैतानी सभ्यता है...यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली है और खुद नाशवान है." 'सच्ची सभ्यता कौन सी है' अध्याय में गांधी जिस प्रकार इस शैतानी सभ्यता के मुकाबले भारतीय सभ्यता को रखते हैं वह ध्यान देने लायक है: " जो सभ्यता हिन्दुस्तान ने दिखायी है, उस सभ्यता को पाने में दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता. जो बीज हमारे पुरखों ने बोये हैं , उसकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आयी. रोम मिट्टी में मिल गया, मिश्र की बादशाही चली गयी, जापान पश्चिम के सिकंजे में चला गया और चीन का कुछ भी कहा नहीं जा सकता. लेकिन गिरा टूटा जैसा भी हो, हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है." आगे चलकर वे आधुनिक सभ्यता पर लिखते हैं- " (भारत में) जहाँ यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंची है वहां आज भी वैसा (सच्चा स्वराज्य) है." वे इस अध्याय के अंत में निष्कर्ष देते हैं- " हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है, इसीलिए मैंने इसे हानिकारक कहा है. पश्चिम की सभ्यता ईश्वर को मानने वाली है. "
गांधी के इस प्रकार के विचारों को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद रहा है. जो लोग तरक्कीपसंद माने जाते हैं उन्हें यह एक 'यूटोपियन' मस्तिष्क के उद्गार लगे हैं जिसमें व्यक्त विचार समयानुकूल नहीं हैं. 1920 में कोमिंटर्न का गांधी के विचारों का आकलन देखा जा सकता है: ...गांधीवाद जैसी प्रवृत्तियां सामाजिक जीवन के सर्वाधिक पिछडे हुए और आर्थिक रूप से सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी रूपों को आदर्श मानती हैं, ...क्रांति की प्रक्रिया के विकास क्रम में ये प्रवृत्तियां नग्न प्रतिक्रियावादी शक्ति में रूपांतरित हो जाती हैं." सिर्फ तरक्कीपसंद ही नहीं गोपालकृष्ण गोखले तक हिन्द स्वराज को पढकर हंसते थे और उन्हें लगता था कि कुछ साल गांधी जब इस देश में रह लेंगे तो उन्हें असलियत का पता चल जायेगा ! यह गांधी के विचारों को अपने तरीके से समझने की चेष्टा है. प्राय़: गांधी को विद्वान लोग अपने हिसाब से घटाकर और काटछांट कर देखते और परखते रहे हैं जो आधुनिक मानस का स्वभाव है.
गांधी के विचारों को अगर गहराई में जाकर देखा जाए तो ये विचार सुसंगत प्रतीत होते हैं. जब से गांधी तालस्ताय, रस्किन आदि के प्रभाव में आए तब से जो हमारे पास उनके विचारों का इतिहास उपलब्ध है उसे इस प्रसंग में देखा जा सकता है. 1888 में जब गांधी लंदन में छात्र थे बादुला और एनी बेसेंट के प्रशंसक थे और जब उन्होंने लंदन प्रेस में यह पढा कि मादाम ब्लावत्सकी की प्रेरणा से एनी बेसेंट एक थियॉसाफिस्ट हो गयी हैं तो उनके आनंद की सीमा न रही थी. बाद में भी एनी बेसेंट के प्रति उनके मन में सम्मान लगातार बना रहा. इस बात को ध्यान में रखना भी जरूरी है कि पश्चिम की सभ्यता की सीमाओं को रेखांकित करने का प्रयत्न यूरोप के साथ साथ भारत में भी लगातार होते रहे थे और गांधी उनसे परिचित भी थे. दयानंद सरस्वती, अरबिंद घोष, विवेकानंद आदि से लेकर केंटिश कुमारस्वामी तक पश्चिमी सभ्यता को लगभग नकारने वालों के अतिरिक्त ऐसे लोग भी थे जो पश्चिम और पूरब के देशों के बीच के अंतर को समझने की कोशिश करते थे और यह मानते थे कि हम भौतिक क्षेत्रों में पश्चिम से भले ही पीछे हों असली मामले -सांस्कृतिक रूप में उनसे श्रेष्ठ हैं. समाजशास्त्रियों ने इस बात को रेखांकित करते हुए इस सांस्कृतिक क्षेत्र से ही राष्ट्रवाद की विचारधारा का उत्स माना है. हिंद स्वराज लिखे जाने के पूर्व ही स्वदेशी आन्दोलन के दौर में भारतीय कला दृष्टि बनाम पश्चिमी कला दृष्टि का प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो चुका था. गांधी इन सब बातों से भली भांति परिचित थे. जब भी गांधी पर बात होती है तो यह बात भी ध्यान में रखना चाहिए कि वे 1902 में कलकत्ता में बहुत घूमे थे, बहुत सारे लोगों से मिले थे और इस शहर के लोगों में जो बह्सें हो रही थी उससे उनका अच्छा परिचय था. इस पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्द-स्वराज में जो पश्चिमी सभ्यता के प्रति जो कठोर उद्गार हैं वे उस समय के लोगों में चर्चा के विषय थे महज गांधी के दकियानूसी परंपरावादी हिन्दू मन में उपजे विचार नहीं थे.
महात्मा गांधी की एक विशेषता यह है कि वे अपने विचारों को सामाजिक और राजनैतिक रूप देने में बाद में सफल हुए और इस देश के करोडों लोगों ने उन्हें हृदय से अपना नेता माना. इस क्रम में यह बात आती गयी कि इस महान राजनेता के विचारों को समझने के लिए उनकी पुस्तक को सहारा बनाया जाए. खुद गांधी ने हिंद स्वराज के लिखने के प्रसंग को अपनी आत्मकथा में कोई महत्त्व नहीं दिया है. एक जगह वे कहते हैं कि जिस समय वे हिंद स्वराज के माध्यम से देश को चरखे के माध्यम से आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने का संदेश दे रहे थे उन्होंने खुद चरखा देखा भी नहीं था!
एक विशेष अर्थ में इस पुस्तक का महत्त्व है और इसी कारण से गांधीवादी चिंतकों ने इस पुस्तक को गांधीवाद की मूल पुस्तक के रूप में स्वीकार किया है. इस पुस्तक में व्यक्त विचारों को गांधी आजन्म अपने लिए सही मानते रहे. 1940 के दशक में भी जब इस पुस्तक के संशोधन की बात आयी तो उन्होंने कोई संशोधन करना स्वीकार नहीं किया. जो लोग गांधीवादी विचारधारा से परिचित हैं वे इस पुस्तक में व्यक्त विचारों और गांधी के आन्दोलन और उनके सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में कोई विरोधाभास नहीं देखते. सिर्फ वे लोग जो गांधी के राजनैतिक रूप को तो ऐतिहासिक महत्त्व का मानते हैं, प्रगतिशील मानते हैं पर समयानुकूल देश को आगे ले जाने वाले के रूप में आधुनिक मानस के जवाहरलाल नेहरू को मानते हैं वे ही इस पुस्तक में आये पश्चिमी सभ्यता के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि से परेशान होते हैं. एक विद्वान ने सही लक्षित किया है कि नेहरू के राजनैतिक गुरू गांधी थे और बौद्धिक गुरू रवीन्द्रनाथ थे. पूर्व बनाम पश्चिम के अंतर्विरोध से निबटने के लिए रवीन्द्रनाथ की सोच थी कि भारत की शास्त्रीय परंपरा के दायरे में यूरोप की शास्त्रीय (यूरोप पुनर्जागरण समेत) और भारतीय लोक परंपराओं के मिलन से 'आधुनिकता के लिए जगह' बनाकर इस अंतर्विरोध को निबटाया जा सकता है. गांधी इसे आधुनिकता के दायरे के बाहर ही अंजाम देना चाहते थे. दोनों महान भारतीय के बीच इस मूलभूत अंतर को रेखांकित करने के संदर्भ में भी हिन्द-स्वराज एक जरूरी दस्तावेज है. दरअसल, गांधी के ऐतिहासिक व्यक्तित्व के एक पहलू- उनकी सांस्कृतिक दृष्टि को जिस तरह ओझल रखा गया उस पर विचार करने के लिए हिन्द-स्वराज का महत्त्व है और बना रहेगा. गांधी किस हद तक विक्टोरियन प्रगति की धारणा से विलग थे इसका प्रमाण है कि वे अपने बच्चों को शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी स्कूलों में नहीं भेजते. उन्हें लगता था कि इन स्कूलों में बच्चे स्वाधीनता खो देते हैं और उनकी शिक्षा अनुभव से उन्हें नहीं जोडती. अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग में उन्होंने विस्तार से लिखा है और यह माना है कि इन स्कूलों में गुलामी की शिक्षा दी जाती है और उन्होंने अपने बच्चों को इस तरह की अकादमिक शिक्षा न देकर ठीक ही किया. यह वह दूसरा प्रसंग है जो गांधी को समझने में सहायक सिद्ध हो सकता है. आधुनिक स्कूली शिक्षा को आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की धुरी के रूप में देखा जाता है. ऐसे में गांधी का अपने बच्चों की शिक्षा के सम्बंध में विचार विचारणीय है. दूसरी बात, आधुनिक शिक्षा के सन्दर्भ में अंग्रेजी के वर्चस्व को लेकर है. गांधी के इस कथन पर तत्कालीन प्रबुद्ध लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी कि " राममोहन राय आदि अगर अंग्रेजी में काम नहीं करते तो और महान होते, और बडे काम कर सकते.". कई लोग यह मानते हैं कि गांधी का अंग्रेजी विरोध उन्हें अपने समय को अधूरा समझने वाला प्रमाणित करता है. आज जब सारी दुनिया में यह भ्रम सफलता पूर्वक फैलाया जा रहा है कि अंग्रेजी के बिना हम दुनिया में टिक नहीं पायेंगे गांधी समस्याएं खडी कर देते है.
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