आंध्र प्रदेश में पंथ आधारित आरक्षण को कांग्रेस की तुच्छ राजनीतिक अवसरवादिता करार दे रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
पिछड़े मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने के आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले पर सम्मति जताकर सुप्रीम कोर्ट ने शायद अनजाने में ही सामाजिक विप्लव के बीज बो दिए हैं, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे और ये पूरी तरह भारत के हित में नहीं होंगे। सच है कि पंथ आधारित आरक्षण जिस पर 1950 में सर्वसम्मति नहीं बन पाई थी, सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने में समय लग सकता है, फिर भी आंध्र प्रदेश को मिली अनुमति निश्चित तौर पर आरक्षण की नई महामारी का आधार बनेगी। सामाजिक इंजीनियरिंग का नया अखाड़ा पहले ही तैयार हो चुका है। रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट में मुसलमानों को 10 प्रतिशत और दलित ईसाइयों को अतिरिक्त कोटे की अनुशंसा पर कांग्रेस का ध्यान है, जो महिला आरक्षण विधेयक को लेकर मुसलमानों की तीखी प्रतिक्रिया को ठंडा करने के उपाय तलाश रही है। पार्टी की दोषपूर्ण नीतियों में नए समीकरण तैयार किए जा रहे हैं। कांग्रेस पिछड़ी जातियों और मुसलमानों की उभरती एकता को पहले से जारी पिछड़े कोटे में मुसलमानों की हिस्सेदारी के आधार पर खंडित करना चाहती है, क्योंकि पिछड़ी जातियों में, खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में, 1967 के बाद से कांग्रेस को समर्थन देने का रुझान नहीं रहा है, इसलिए सर्वश्रेष्ठ चुनावी रणनीति यही है कि आरक्षण के आधार पर मुसलमानों को लुभाया जाए। दक्षिण भारत में दलित ईसाई और मुस्लिम वोट कांग्रेस के लिए अतिरिक्त रूप से फायदेमंद होंगे। वस्तुत: जब महिला आरक्षण विधेयक से अनपेक्षित रूप में शक्तियों के नए समीकरण बन गए तो कांग्रेस ने इस मामले को ठंडे बस्ते में डालना उचित समझा। उसकी हिचक का कारण यह विश्वास है कि मुस्लिम कोटे से भाजपा में नई जान पड़ जाएगी और उच्च जातियां भाजपा की तरफ झुक जाएंगी। कांग्रेस मानती थी कि सामान्य परिस्थितियों में भाजपा के हाथ से उच्च जातियां और मध्यवर्ग फिसल जाएगा, विशेष तौर पर अगर कांग्रेस का पुनरुत्थान होता है। यह दिलचस्प है कि भाजपा के भय का अनेक मुस्लिम संगठनों को एहसास नहीं हुआ। उनका आकलन था कि आंतरिक तौर पर बंटी हुई भाजपा हिंदू वोटों को अपने पक्ष में नहीं रख पाएगी और इसलिए पंथ आधारित आरक्षण के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहिए। महिला आरक्षण विधेयक और आंध्र प्रदेश फैसले के बाद मुस्लिम संगठन कांग्रेस की कमजोर नस पर हाथ रखकर उस पर दबाव बढ़ाना शुरू कर देंगे। जहां तक भाजपा का सवाल है, मुस्लिम गुट दीर्घकालीन Oास के अपने पुराने आकलन में संशोधन नहीं कर रहे हैं। घात-प्रतिघात के इस जटिल खेल से भारत की बदरंग तस्वीर उभर रही है। 2009 की चुनावी जीत को कांग्रेस जिस हक की राजनीति की उपज मान रही थी, अब वह पूरी तरह उन्माद में बदल गई। अगर महिला आरक्षण विधेयक असमान लैंगिक आधारित खामी के रूप में स्वीकारता है तो रंगनाथ रिपोर्ट देश को पंथिक खेमों में बांटती है। 1950 में संविधान लागू होने के बाद से सांप्रदायिक निर्वाचन और पंथ-आधारित आरक्षण का कोई दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता। संवैधानिक सभा का मानना था कि देश के बंटवारे के लिए पंथिक मतभेदों का संस्थानीकरण जिम्मेदार है और वह इस प्रक्रिया का दोहराव न होने देने के लिए प्रतिबद्ध थी। 28 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में मुस्लिम लीग के बचे हुए सदस्यों को संबोधित करते हुए सरदार वल्लबभाई पटेल ने दोटूक कहा, अतीत को भूल जाओ। आप जो चाहते थे, आपने पा लिया। आपको एक अलग राष्ट्र मिल गया और याद रखें कि आप ही वे लोग हैं, जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, वे नहीं जो पाकिस्तान में रह गए हैं..आपने देश का विभाजन कराया और मुझसे चाहते हैं कि अपने छोटे भाइयों का स्नेह प्राप्त करने के लिए मैं फिर से देश को विभाजित करूं। अगस्त 1947 में अलगाववादी शक्तियों के दबाव में न आने का कांग्रेस में जो सुस्पष्ट संकल्प दिखाई दे रहा था, अब वह मुर्झा गया है। इसका कारण अधिकारों की नई खोज नहीं है, बल्कि सीधा-सादा विचार है कि ठोस मुस्लिम वोट बैंक 75 से 120 लोकसभा सीटों के परिणाम पर असर डालता है किंतु कोई भी ऐसी सांगठनिक शक्ति नहीं है, जो इसका इस्तेमाल कर सके। जिस दिन ऐसी प्रतिरोधक शक्ति उभरकर सामने आएगी, उसी दिन कांग्रेस अलगाववादी दबाव के सामने और समर्पण कर देगी। 1947 में कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज पार्टी थी, जिसका अपना जनाधार था। 2010 में कांग्रेस अन्य पार्टियों के समान हो गई है, जिसका अपना पक्का वोट बैंक नहीं है। एक तरह से यह आज के भारत की वास्तविक त्रासदी है। देश के राजनीतिक विखंडन में एक प्रतिबद्ध, सुसंगठित अल्पसंख्यक समुदाय मौके की नजाकत का फायदा उठा लेने की ताक में है, चाहे इसके लिए उसे संविधान को उलटना ही क्यों न पड़े। अगर संप्रग सरकार रंगनाथ मिश्रा के बताए रास्ते पर चलती है तो यह पूरे देश के लिए खतरनाक संदेश होगा। 2009 में मध्य वर्ग के मतदाताओं ने उकसाऊ राजनीति को नकार दिया और एक संयत, उदार व आधुनिक रुख का समर्थन किया। अगर कांग्रेस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत के भूत को फिर से जगाती है और पंथिक आग्रहों को उभारती है तो यह जनादेश का मखौल होगा। आधुनिक भारतीय पहचान की चिंता न करें, सत्तारूढ़ दल हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई बनने की नसीहत दे रहा है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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