देश में बीटी बैगन का विवाद थमा भी नहीं था कि बिहार में एक और बड़ा हादसा हो गया। मक्का यहां की प्रमुख फसल है। जिन किसानों ने पूसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बीज या अपने परंपरागत बीज बोए थे उनके पौधों में दाने भरपूर हैं। लेकिन लगभग दो लाख एकड़ भूमि में टर्मिनेटर सीड (निर्वश बीजों) का प्रयोग किया गया। इसके पौधे लहलहाए जरूर लेकिन उनमें दाने नहीं निकले। जिन किसानों ने टर्मिनेटर बीजों का प्रयोग किया, उनके खेतों में पौधों से दाने गायब थे। किसानों ने इन बीजों को 180 से 285 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदा था। खाद, बीज सिंचाई, मेहनताना सब मिलाकर प्रति एकड़ लगभग 10 हजार रुपये की लागत आई थी। यानी 25 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर। 80 प्रतिशत किसानों ने महाजनों से पांच रुपये प्रति सैकड़ा/ महीना की दर पर कर्ज लेकर खेती की थी। बड़ी जद्दोजहद के बाद मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया कि एक लाख उनसठ हजार एकड़ (63 हजार हेक्टेयर) में मक्के की फसल में दाने नहीं आए। सरकार ने प्रति हेक्टेयर 10 हजार रुपये (यानी प्रति एकड़ सिर्फ चार हजार रुपये) मुआवजा देने की घोषणा की है। यह रकम खेत में लगी लागत के आधे से भी कम है। मुआवजा तो लागत के अतिरिक्त फसल की संभावित उपज के आधर पर दी जानी चाहिए थी। फिर जो किसान दूसरों से बटाई पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे उनको तो एक पाई भी नहीं मिलेगी। आज से सात साल पूर्व 2003 में भी बिहार में ऐसा ही हादसा हुआ था। तब टर्मिनेटर (निर्र्वश) बीजों के प्रयोग के कारण फसल में दाने नहीं आए थे। देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां टर्मिनेटर बीजों का व्यापार करती हैं। इन बीजों से उत्पादित मक्का, गेहूं, टमाटर या कपास को खेत में दोबारा नहीं उगाया जा सकता। आखिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसने यह अधिकार दिया कि इस प्रकार किसानों को अंधेरे में रखकर बड़े पैमाने पर अपने बीजों का ट्रायल करें। इन कंपनियों को इस गफलत के लिए कानूनी घेरे में लिया जाना चाहिए और उनसे किसानों के हर्जाने की भरपाई करानी चाहिए। उन पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इसी तरह कृषि विभाग के जो अधिकारी इन बीजों के प्रयोग की छूट देने के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए। सन 2002 में मध्य प्रदेश में किसानों को प्रलोभन देकर दस हजार एकड़ में बीटी कपास की खेती करार्र्र्ई गर्र्र्ई। पूरी फसल बर्बाद हो गर्र्र्ई। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात तथा अन्य राज्यों में भी जीएम बीजों के कारण फसल बर्बाद हुई है और वहां के किसान लगातार इसका विरोध कर रहे हैं। टर्मिनेटर बीज बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां मूलत: रसायन बनाने वाली कंपनियां हैं। इन बड़ी कंपनियों की वैश्विक आय का आधा खरपतवार नाशकों तथा अन्य रसायनों से आता है। आज दुनिया भर के जेनेटिकली मोडिफायड बीजों के व्यापार का अधिकांश इन्हीं कंपनियों के हाथों में है। ये कंपनियां राजनेताओं, नौकरशाहों और कृषि वैज्ञानिकों को आर्थिक लाभ पहुंचाकर अपने पक्ष में फैसले करवाने के लिए कुख्यात हैं। यह ध्यान रहे कि पूरे विश्व में निर्वंश बीजों का विरोध हो रहा है। यूरोप के कई देशों में इन पर प्रतिबंध भी लगाया गया है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों को तेजी से प्रसार हुआ है। वहां के खेत ऊसर होते जा रहे हैं। अनाज का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में किसानों की हालत बिगड़ती जा रही है और वे आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं। बड़ी-बड़ी बीज कंपनियों की लोलुप नजरें विकासशील देशों की जैव विविधता पर लगी हैं। एक ओर ये जीएम बीज बनाकर उनका पेंटेंट करा रही हैं और दूसरी ओर बीजों का एकाधिकार कायम करने के लिए निर्वंश बीजों के द्वारा हमारे बीजों के भंडार तथा हमारी जैव विविधता को नष्ट कर रही हैं। जिन खेतों में निर्वंश बीजों का प्रयोग होता है उसके आस-पास की दूसरी फसलों पर भी इनके पराग फैल जाते हैं और उन फसलों के बीजों को भी निर्र्वश कर देते हैं। यह माना जा रहा है कि निर्वंश बीजों से उपजे पौधों में जहरीले रसायन उत्पन्न होते हैं, जो किसी खास कीट को तो नष्ट कर देते हैं लेकिन अन्य प्रकार के कीटों को मारने के लिए अन्य जहरीले रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है। यही नहीं, रासायनिक फर्टिलाइजर तथा सिंचाई की भी इसमें भरपूर जरूरत पड़ती है। इनके पौधे जहरीले हो जाते हैं इसलिये चारे के रूप में इन्हें खा कर पशु बीमार पड़ते हैं और कई बार मरते भी हैं।
साभार:-दैनिक जागरण
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