26.4.10
बैसाख में आई बहुत प्यासी है घुघती
बैसाख महीने में घरों के आसपास घुघती की 'बास' को नई नवेली बहुओं के लिए उसके मायके से लाया गया सन्देश समझना हमारी भूल हो सकती है... दरअसल इस महीने में पहाड़ी घरों के आसपास आवाज़ लगाने वाली घुघती प्यास से ब्याकुल है। वह तो पिछले महीने लोगों के सन्देश इधर से उधर करती रही और लोगों ने उसके आशियानों में ही आग लगा दी... पहाड़ के जंगल इस समय धूं -धूं कर जल रहे हैं और घुघती सरीखे लाखों बेजुबान प्राणी जान बचाने के लिए इंसानों की शरण में पहुच रहे हैं.... तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना की तर्ज़ पर पहाड़वासियों ने इन निर्दोष प्राणियों के दर्द को समझा हैं और उनकी प्यास बुझाने के लिए लगभग ख़त्म हो चुकी परम्परा को जीवनदान दे दिया है। अब पहाड़ों की ओखलियों में पानी भर कर रखा जाता है। पानी के बर्तनों को घरों के आसपास रखा जाने लगा है ताकि इन बेजुबानों की प्यास बुझ सके।
पछियों को क्या चाहिए चोंच भर पानी और दो चार दाने लेकिन पर्वतराज हिमालय के घने जंगल अपने इन आश्रितों के पेट भरने की स्थिति में भी नहीं हैं। मजबूरन पछी आबादी की और हसरत भरी उडान भर रहे हैं। पहाड़ के लोगों ने भी अपने दुःख सुख के इन साथियों की बोली को दिल से समझा और उनके लिए दाना-पानी का जुगाड़ करने के प्रयास शुरू कर दिए। दरअसल इस मौसम में दावानल से जंगल दहक रहे हैं। जहाँ आग नहीं है वहां गर्मी ने पछियों का जीना दूभर कर दिया है। नतीजा घुघती और उसके साथ के पछी अब ऊँचे पहाड़ों पर स्थित आबादी वाले स्थानों की तलाश में निकल पड़े हैं। दुखद यह है कि यही मौसम पछियों के लिए प्रजनन कल होता है। आग ने पछियों के तिनका- तिनका जोड़ कर बनाये गए घोसलों को भी जला दिया है। कौन जाने उनमे उनकी नयी पीढीयाँ भी साँस ले रही हों। घुघती जैसे पछियों ने अपने हलकों को तर करने के लिए इंसानों कि मदद मांगी और कई जगह उन्हें निराश नहीं लौटना पड़ा। घिन्दुड़ी यानि गौरैया के लिए हस्त निर्मित घोसले बनाने वाले प्रतीक पंवार इस स्थिति कि दर्दनाक बताते हैं। हो सकता हैं कोई घुघती आपके आँगन में भी आपसे मदद कि गुहार लगाने के लिए आये... उसका एहतराम जरूर करना....उसे इंसानी सभ्यता के नाते पानी देना और दो चार दाने अनाज भी खिलाना...शायद जिंदा रही तो आपकी बेटी को उसकी ससुराल में जाकर अगले साल चैत के महीने में वह आपकी खैर खबर जरूर सुनाएगी... फिर मिलते हैं...छत और आंगन में जरूर देखना .......
न बासा घुघती चैत की, खुद लगीं च में म मैत की॥
या फिर
घुघती घुरौन लगी म्यार मैत की, बौडी बौडी ऐअग्ये रितु- रितु चैत की॥
इन दोनों गढ़वाली गीतों में दो चीजें समान हैं। एक घुघती दूसरा चैत का महीना। पुरानी कहानियों में घुघतियों के चैत के महीने में घरों के आँगन या छत पर घुरघुराने का मतलब नवविवाहिता को उसके मायके का सन्देश देनामाना जाता था। गढ़वाल और कुमाऊ में घुघती के माध्यम से विरह के दर्जनों गीत रचे गए हैं। इस तरह घुघती मानसिक रूप से उत्तराखंड के हर घर की सदस्य बन गयी... घुघती यानि प्यारी सी मासूम फाख्ता......
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