21.4.10

घुट-घुट के जीने को मजबूर पुलिस वाले

ये चिराग़े ज़ीस्त हमदम जो न जल सके तो गुल हो
यूँ सिसक -सिसक के जीना कोई जिंदगी नहीं है
२०-४-१० को मेरठ के सभी अख़बारों की जो सुर्खी थी उसे देख कर वाकई में दिमाग भन्ना गया,जितना दिमाग ख़राब हुआ उससे कहीं ज्यादा मन को पीड़ा हुई कि पुलिस विभाग के वर्दीधारी सिपाही के शव को फाँसी के फंदे पे झूलता हुआ देख उपरोक्त पंक्तियाँ सहसा मेरे मन पटल पर उभर आयीं।
देश-प्रदेश की आन्तरिक सुरक्षा का भर उठाने वाला एक पुलिस कर्मी आत्महत्या कर के अपनी जीवन लीला समाप्त कर दे यह कोई साधारण बात नहीं है,एक इन्सान को ऐसा भयानक कदम उठाने के लिए मजबूर करने वाली परिस्थितियां दो-चार दिनों में उत्पन्न नहीं होतीं बल्कि इस की प्रष्ठभूमि में घोर निराशा और दम घोटने वाला माहौल होता है। ये सब मैंने यूँ ही मात्र कल्पना करके या कहीं पढ़-पढ़ा के नहीं लिख दिया है बल्कि इस माहौल को बहुत करीब से देखा है या यूँ कहे कि अपने जीवन के २५-२६ साल इस माहौल में गुजरें हैं क्योकि मेरे पिता ने ३६ साल इस विभाग की सेवा की है और मैंने कई बार उन्हें कठिन हालातों से गुजरते हुए देखा है जिसमे कई बार निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है कि अपने ज़मीर कि सुने या हुकुमरानो की। मेरे और भी कई करीबी रिश्तेदार हैं जो अभी भी नौकरी कर रहे हैं इस विभाग में और अपनी गाड़ी को बस भगवान भरोसे खींच ही रहे हैं किसी तरह।
आइये पुलिस विभाग की अंदरूनी तस्वीर की समीक्षा करतें हैं। पुलिस विभाग को संचालित करने वाला पुलिस रेगुलेशन एक्ट लगभग १५० साल पहले हमारे अंग्रेजी शासकों ने बनाया था,जिसके अनुसार प्रत्येक पुलिस कर्मी सप्ताह के सातों दिन तथा दिन के २४ घंटे का मुलाज़िम होता है,उसे जब चाहे ड्यूटी के लिए तलब किया जा सकता है। अंग्रेज़ बहादुर तो चले गए अपनी सुविधा के अनुसार नियम बनाकर लेकिन देश की आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी देश और प्रदेश के कर्णधारों को इस प्रकार के अव्यवहारिक नियमों पर पुनःविचार करने का समय नहीं मिला।
दुनिया में श्रमक्रांति हुई,श्रमिकों के लिए एक दिन में ८ घंटे काम करने का नियम बना लेकिन पुलिस विभाग इस से वंचित रहा। पुलिस विभाग की सब से बड़ी समस्या यह है कि इस विभाग की जिम्मेदारियों और इसके साधनों में बहुत बड़ा गैप है।आज़ादी के बाद से पुलिस के दायित्वों में तो कई गुना इजाफा हुआ है लेकिन उसके अनुपात में पुलिस के संसाधन एक चौथाई भी नहीं बढे हैं। सबसे ख़राब स्तिथि तो थानों की है। एसएचओ या एसओ को छोड़कर अन्य सभी पदों के कर्मचारिओं के स्थान रिक्त पड़े हैं जिन्हें भरने की कोई तर्कसंगत योजना सरकार के पास नहीं है,नगरों की ट्रेफिक व्यवस्था,थानों का पहरा,ड्यूटी,पोस्टमार्टम कराने तथा अभियुक्तों को न्यायालय में पेश करने के कार्यों में अगर होमगार्ड सहायक ना हों तो पुलिस विभाग का काम चार दिन भी नहीं चल सकता।
देश की आबादी बढ़ रही है,बेरोज़गारी बढ़ रही है,युवा वर्ग में असंतोष और हताशा व्याप्त है,जिसके फलस्वरूप अपराध बढ़ रहा है।चेन स्नेचिंग,पर्स,मोबाइल हैण्ड बैग,लैपटॉप सरेआम लूटे जा रहें हैं और थानों में कोई एफआई आर दर्ज करने को तैयार नहीं है वजह ये है कि एक ओर तो अपराध दर्ज होगा और दूसरी तरफ तफ्तीश के लिए स्टाफ कहाँ से आयेगा? पिछले लगभग दो दशकों में पुलिस संस्कृति में भयंकर बदलाव आया है पुलिस के दिन प्रतिदिन के कार्यों में राजनैतिक हस्तकचेप इस हद तक बढ़ गया है कि जो पुलिस कर्मी सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में कार्य करतें हैं उन्ही को मनचाही पोस्टिंग मिलती है शेष धूल चाटते फिरतें हैं।
एक और भयंकर रोग जो इस विभाग को घुन की तरह चाट रहा है, वह है भ्रष्टाचार ,पहले सुना जाता था कि कहीं -२ पुलिस वाले हफ्ता वसूल करते थे अब यह सुनने में आता है कि पुलिस वाले अपनी क़ुर्सी बचाने के लिए हफ्ता अदा कर रहे हैं।ईश्वर ही जानता है कि सत्य क्या है और इसका परिणाम क्या होगा?पुलिस विभाग की सेवा शर्तें बहुत कठिन और कष्टदायक हैं। थाना स्तर के कर्मचारिओं की स्तिथि सबसे अधिक दयनीय है। मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं है। रहने को आवास नहीं है,समय पर अवकाश नहीं मिलता। प्रोन्नति के अवसर नहीं के बराबर हैं । खाना खाने,सोने व आराम करने का कोई समय नहीं है। जनता के मन से पुलिस का भय और सम्मान निकल चुका है। रास्ता जाम,थाने का घेराव,पथराव,पुलिस कर्मिओं से हाथापाई अब रोज़ की बात हो गए है। थाने की जीप में तेल अपनी जेब से डलवाना पड़ता है,दफ्तर के काम में आने वाली स्टेशनरी भी खुद ही मंगवानी पड़ती है। अतः इस तरह के दम घोटू माहौल में यदि कोई संवेदनशील पुलिस कर्मी आत्महत्या कर लेता है तो ऐसी घटना दुखद तो जरूर होती है लेकिन आश्चर्यजनक बिलकुल नहीं।
पुलिस की सेवा शर्तों में सुधार के लिए आयोग तो कई बने लेकिन उनकी सिफारिशें गृह-मंत्रालय के रिकॉर्ड रूम में धूल चाट रहीं है। इससे पहले कि स्तिथि विस्फोटक हो जाए शासन -प्रशासन को सजग हो जाना चाहिए अन्यथा बदमाशों के साथ मुठभेड़ में शहीद होने वाले पुलिस वाले आत्महत्या करने पर मजबूर हो जायेंगे।

1 comment:

  1. jin par samaj ki rakhwali ka bhar hai ve khud apni zindagi ko lekar hi nishchint nahin hain kya vidambana hai.aisa kab tak chalega?in paristhitiyon men ham kaise ummid kar sakte hain ki koee naxaliyon se ladega.unhe achchhi suvidhayen di jaye lekin police ko jo log goos lekar badnam kar rahe hain unke khilaf bhi karrawaee honi chahiye.

    ReplyDelete