30.5.10

कबाड़ी वाला

कोलतार-सी
धधकती देह पर
ठुकी-झाँकती दो पनियल आँखें
सूखते होंठ-कर्रे बाल
लिये अधखुले धूल से सने पपोटे
ताकता है वह कभी आकाश तो
कभी घास के विराट मैदान-सा रीता ठेला
और लगाता है ज़ोर-की आवाज़
पेप्परला-कोप्पीला-ताबला-पेचपुर्ज़ा-खाली बोत्तल-कबाड़ला..
और हाँफ कर बैठ जाता है
ड्योड़ी पर, घूरकर
अपनी छोटी होती परछाई को,
इंतज़ार करता है वह
आसाढ़ की पहली फुहार का....

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