(उपदेश सक्सेना)
भारतीय रेल को विश्व की प्रमुख और सबसे बड़ी रेलवे में शुमार किया जाता है, मगर सच्चाई इसमें यात्रा करने वाले ही जानते हैं कि आखिर रेलवे किस कदर इस सेवा के लिए प्रतिबद्ध है. मैं, भोपाल का निवासी हूँ सो अक्सर भोपाल एक्सप्रेस से आना-जाना होता है. इसलिए इसी ट्रेन का उदहारण दे रहा हूँ. मुझे नहीं मालूम कि अब इस ट्रेन का आईएसओ तमगा क़ायम है अथवा नहीं, मगर यदि है तो यह ट्रेन इसके कतई लायक नहीं बची. इस ट्रेन के साथ उत्तर रेलवे शुरू से सौतेला व्यवहार करता आया है. यह ट्रेन पश्चिम-मध्य रेलवे के अंतर्गत आती है. इस ट्रेन के साथ दोयम दर्ज़े का व्यवहार निज़ामुद्दीन स्टेशन से शुरू हो जाता है. पहले इस ट्रेन को यहाँ से यहाँ से एक नं. प्लेटफार्म से रवाना किया जाता था, मगर अब इसे छः नं. प्लेटफार्म से रवाना किया जाता है. ट्रेन के भीतर भी सुविधाओं के नाम पर काफी चीज़ें जो पहले उपलब्ध थीं, अब गायब हैं. मसलन पिछले और आने वाले स्टेशन की जानकारी के साथ ट्रेन की गति, आने वाले स्टेशन की दूरी आदि की जानकारी देने वाला जीपीएस सिस्टम अब तमाम डब्बों से गायब है. शौचालयों में गन्दगी, टोंटी से पानी गायब, खुले आम वसूली करते घूमते जीआरपी के जवान, गंदे और सीटों के हिसाब से कम बेडरोल आईएसओ तमगे को हांसिल करने की कथा खुद ही व्यक्त कर देते हैं.
उत्तर रेलवे के जीएम एसके बुढलाकोटि भी मानते हैं कि राजधानी और शताब्दी ट्रेनों में यात्रियों को दिए जाने वाले कम्बलों को माह में केवल एक बार धोया जाता है.जब इन लक्जरी ट्रेनों के यह हाल हैं तो भोपाल एक्सप्रेस की स्थिति पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.रेल मंत्री ममता बैनर्जी की ड्रीम ट्रेन दूरांतो की हालत तो और भी खस्ता है, इन ट्रेनों में तो यात्रियों को गन्दा चादर,तकिया,कम्बल, तौलिया भी नसीब नहीं होता. दूरंतो में हर ७२ यात्रियों पर केवल २५ बेडरोल उपलब्ध हैं. करोड़ों का मुनाफा कमा रहा रेलवे महकमा यात्री सुविधाओं की ओर से आँखें मूंदे बैठा है. ट्रेनों में खान-पान की हालत भी भले-चंगे यात्री को बीमार करने के लिए काफी है. आईआरसीटीसी ने ट्रेनों में खान-पान की जो दरें तय की हैं उसे वेंडर मानने को तैयार नहीं होते, मसलन चाय की कीमत साढ़े चार रूपये तय है मगर इसे पांच रूपये से कम नहीं बेचा जाता, ५.५० रूपये की कॉफी ६ रूपये में बेची जाती है.अंडा बिरियानी ४५ रूपये, वेज बिरियानी ४० रूपये में इतनी मात्रा में मिलती है कि एक व्यक्ति का पेट बमुश्किल भर पाए, कुल मिलाकर इन खाद्य सामग्रियों की लागत आधे से भी कम बैठती होगी मगर मुनाफे की चकाचौंध में रेलवे पर बाज़ारवाद हावी हो गया है. ममता जी, ट्रेनें चलाना ही नहीं उनमें व्यवस्था भी ज़रूरी है, गाडी सही नहीं चलाने वाले ड्राइवर को जनता सीट से हटा भी सकती है. सुन रहीं हैं ना आप.....
ट्रेन यात्रा करना किसी अविस्मरण से कम नही । लेख लोकोपयोगी . उपदेश जी ।
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