21.5.10

कबीर भोजपुरी के आदिकवि

(आगरा में शनिवार से विश्व भोजपुरी सम्मेलन होने जा रहा है। दुनिया भर के तमाम देशों से और देश के कोने-कोने से भोजपुरी के विद्वान साधक ताज के शहर में आ डटे हैं। इस मौके पर हिंदी और भोजपुरी के बारे में मशहूर साहित्यकार और हिंदी के अप्रतिम विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार जानकर आप को अच्छा महसूस होगा। 1976 में अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में उन्होंने भोजपुरी में जो भाषण दिया था, उसके अंश यहां हिंदी में दिये जा रहे हैं)



कबीरदास भोजपुरी के आदि कवि थे। उन्होंने कहा है, जो रहे करवा त निकंसे टोंटी। लोटे में पानी होगा, तभी तो टोंटी से निकलेगा। यहां तो एक बूंद भी पानी नहीं है। हम सोचते थे कि भोजपुरी अपनी मातृभाषा है, इसमें लिखना आसान होगा लेकिन जिस भाषा में हम रोज बोलते हैं, लगता है उसमें लिखना कठिन काम है। किसी भी भाषा में लेखन के लिए कुछ साधना की जरूरत होती है, कुछ मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। मेरे अंदर तो ऐसा कुछ भी नहीं है।

भोजपुरी बहुत शक्तिशाली बोली है। लोकसाहित्य का ऐसा भंडार कहीं और नहीं दिखता। मुहावरे, लोकोक्तियां और व्यंग्य-विनोद का तो यह खजाना है। इसे बोलने वालों की संख्या भी विशाल है। पांच करोड़ से भी ज्यादा। बहुत कम भाषाएं हैं, जो इतने लोगों द्वारा बोली जाती हैं। भोजपुरियों में अपनी भाषा का गर्व भी बहुत है। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ऐसा भाषा प्रेम उन्होंने कहीं और नहीं देखा। भोजपुरीभाषी हमेशा देश की अखंडता की बात सोचता है। इसके लिए वह सर्वस्व नयोछावर करने को भी तत्पर रहता है। वह अपने घर में भोजपुरी बोलता है, अपनी भाषा में कविता भी लिखता है लेकिन अलग रहने की बात कभी नहीं करता। हमारी सार्वदेसिक भाषा हिंदी को सजाने-संवारने में भी भोजपुरियों का भारी योगदान रहा है। सदल मिश्र और भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अनेक बड़े-बड़े रचनाकार भोजपुरी क्षेत्र से संबंधित रहे हैं। अपनी बोली से प्रेम के बावजूद इन लोगों ने हिंदी को संवारने में अपना जीवन लगा दिया।

पुराने जमाने से देश में दो तरह की भाषाओं का प्रयोग होता आया है। एक लोकभाषा और दूसरी संस्कृत भाषा। कई बार लोकभाषा में अच्छा साहित्य रचा गया। अब बहुत कम बचा है, काफी कुछ नष्ट हो गया है। बौद्ध और जैन धर्म का प्रचुर साहित्य लोकभाषा में ही लिखा गया। पालि में अकूत साहित्य भरा पड़ा है। मुझे लगता है कि वह भोजपुरी का ही प्राचीन रूप है। जब तक बात धार्मिक उपदेश की, प्रेम की रही, आसानी से काम चलता रहा पर जब दर्शन, तर्कशास्त्र जैसे गंभीर विषयों की बात आयी तो फटाफट संस्कृत में लिखा जाने लगा। आधुनिक हिंदी भी पहले लोकभाषा के रूप में ही सामने आयी। लेकिन जैसे-जैसे उसमें लोकभाषा के तत्व कम होते जा रहे हैं, वह भी संस्कृत के पद पर बैठती जा रही है। अभी भी उसमें संस्कृत जैसा कसाव नहीं आया है मगर आ जायेगा। जहां तक सूक्ष्म चिंतन-मनन मूलक साहित्य की बात है, हिंदी निश्चित रूप से सार्वदेसिक भाषा का रूप ले चुकी है परंतु जहां तक रागात्मक अभिव्यंजना का प्रश्न है, हिंदी जन-जीवन से दूर होती जा रही है। एक तरह से बौद्धिक कसरत बढ़ती जा रही है। इसकी प्रतिक्रिया में हर बोली के प्रतिभावान साहित्यकार जनभाषा की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। आंचलिकता के नाम पर खिचड़ी भी पकायी जा रही है। यह अकारण नहीं हो रहा है, इतिहास विधाता के निर्देश पर हो रहा है।

विशाल हिंदीभाषाभाषी क्षेत्र में अनेक बोलियां बोली जाती हैं। ब्रजभाषा का साहित्य बहुत समृद्ध रहा है। अवधी, राजस्थानी की अपनी परंपरा रही है। भोजपुरी की साहित्यिक परंपरा भी कम पुरानी नहीं है। हिंदी सबको अपना मानकर चलती है। चाहे राष्ट्रभाषा कहें या राजभाषा या संपर्क भाषा, संविधान बनाने वालों ने हिंदी को सार्वदेसिक भाषा के रूप में चुना लेकिन बहुत से लोग इसे मानने को तैयार नहीं। वे चाहते हैं कि यह काम अंग्रेजी करती रहे। पहले थोड़ी शर्म थी पर अब तो लोग खुलकर कहने लगे हैं कि हिंदी नहीं अंग्रेजी ही संपर्क भाषा रहनी चाहिए। लेकिन कठिनाई यह है कि अंग्रेजी के साथ देश का आत्म सम्मान जुड़ नहीं पाता। इसलिए चलेगी तो हिंदी ही।

कोशिश यह भी हो रही है कि हिंदी की शक्ति कम की जाय। हिंदी के अंतर्गत आने वाली बोलियों में अलगाव के बीच बोने के प्रयास भी हो रहे हैं पर वे सफल नहीं होंगे। अलग-अलग बोलियों में भी बेहतर साहित्य लिखा जाता रहेगा और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान भी मिलेगा। अगर भोजपुरी बोलने वालों को कुछ अधिक सुख-सुविधा, मान-सम्मान मिले तो इससे हिंदी को कोई आपत्ति नहीं होगी। भोजपुरी को भी हिंदी से प्रतिस्पर्धा की बात मन में नहीं लानी चाहिए। हमें हिंदी और भोजपुरी को एक ही समझकर काम करना चाहिए। दोनों को दो मानने पर झंझट होगी।   हिंदी में लिखने वाले को भी नमन और भोजपुरी में लिखने वाले को भी। भगवान सबका कल्याण करे।

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