(उपदेश सक्सेना)
एक हल्का फुल्का मगर असरकारक जोक है- पाकिस्तानी बच्चा सुबह उठकर सबसे पहले अल्लाह को याद करता है, इराकी बच्चा सबसे पहले अपनी पोषाक दुरुस्त करता है, अमरीकी बच्चा सबसे पहले अपना दिन भर का कार्यक्रम तय करता है जबकि भारतीय बच्चा सुबह उठकर सबसे पहले बिस्तर में ही आवाज़ लगाता है, माँ, भूख लगी है कुछ खाने को दो. यह गंभीरता से ली जाने वाली बात है, क्योंकि ऐशो-आराम भरी जिंदगी का असर आम आदमी के स्वास्थ्य पर दिखने लगा है.
भागदौड भरी जिंदगी में खानपान की अनियमितताओं के चलते मानव शरीर बीमारियों का घर बन गया है. हाल ही में एसोचेम की एक रिपोर्ट के आंकड़े भयावह हैं. मधुमेह जैसी अमीरों की बीमारी अब गरीबों को ज्यादा होने लगी है. रिपोर्ट के अनुसार आने वाले 15 वर्षों में भारत में मधुमेह के कुल मरीज़ साढ़े पांच करोड का आंकड़ा पार कर जायेंगे. अकेले दिल्ली में इनकी संख्या साठ लाख तक पहुँच जायेगी. विश्व में इस रोग के तब तक 23 करोड बीमार होने का अनुमान लगाया गया है. रिपोर्ट में मधुमेह के अलावा कैंसर, दिल का दौरा और मानसिक तनाव को भविष्य का ख़तरा बताया गया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ देश में कैंसर के मरीजों की संख्या में हर साल लगभग 14 लाख नए मरीज़ जुड़ रहे हैं.इनमें से आधे मरीज़ ऐसे होते हैं जिनकी मौत सुनिश्चित होती है.
वैसे इन बीमारियों के बढ़ने-फैलने के पीछे हमारी खाने-पीने की आदतें बहुत ज़्यादा ज़िम्मेदार है. अधिक तेल-मसाले वाला खाना, चाय को पानी की तरह पीने, खाने में साफ़-सफाई का अभाव, पौष्टिक खाद्यान्न की खाने की थाली में कमी जैसे कारण भारतीयों को समय के पहले बूढ़ा-बीमार बना बना रहे हैं. रही सही कसर शराब और धूम्रपान पूरा कर रहे हैं. वैज्ञानिकों ने खान पान को लेकर एक आचार संहिता तैयार की है, जिसके अनुसार पूरे दिन में क्या,कितना,कैसे खाया जाए इसका विस्तार से वर्णन किया गया है. साथ ही प्रतिदिन एक निश्चित समय व्यायाम के लिए नियत करने की भी सलाह दी गई है.
अमीरी-गरीबी के बीच बढती दूरी ने भी आम आदमी की सेहत बिगाड़ने में भूमिका निभाई है. सरकार द्वारा स्वास्थय सेवाओं के लिए खर्च की जाने वाली मोटी धनराशि कहाँ, किसकी सेहत सुधार रही है इस बात पर किसी का ना तो नियंत्रण है और ना ही इस पर नज़र रखने का कोई कारगर तंत्र ही तैयार है. निजी अस्पतालों की बढती संख्या से ही स्पष्ट हो जाता है कि सरकार आम आदमी की सेहत को चुस्त रखने में कितनी लचर है. आज तमाम बड़े निजी अस्पताल केंद्रीय और राज्य सरकारों के स्वास्थ्य पैनल में शुमार हैं, जिससे सरकारी चिकित्सा संस्थाओं की रीढ़ ही टूट गई है. आम आदमी अपना इलाज महंगे चिकित्सा केन्द्रों में नहीं करवा सकता, लिहाज़ा उसे आम आदमी से भी बद्तर मौत झेलना पड़ती है. सरकारी डाक्टर निजी अस्पतालों में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में ज़्यादा भरोसा करते हैं, आखिर उन्हें अपनी जेब का भी तो स्वास्थ्य दुरुस्त करना होता है. सरकारी अस्पतालों में कई सुविधाएँ उपलब्ध करवाने का दावा करने वाली सरकारें इन अस्पतालों में डाक्टरों की उपस्थिति सुनिश्चित नहीं करवा पा रही हैं. बीमारियों से बचना है तो अपनी सुरक्षा आप करें, आपको स्वस्थ रखना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है.
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