नौकरशाही के काम करने का अपना अलग अन्दाज है, जो भी नेता प्रमुख कुर्सी पर बैठता है वे उसके सगे हो जाते हैं लेकिन वे किसके सगे होते हैं आज तक न तो किसी नेता को पता और न जनता को। पूर्व मुख्यमंत्री के कार्यकाल में उनकी नाक के बाल रहे प्रमुख सचिव आजकल वर्तमान मुख्यमंत्री के खास होने का स्वांग कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे मुख्यमंत्री की निजी टीम के इतने खिलाफ हैं कि उन्हे उनका मुख्यमंत्री के कान में फुसफुसाना तक अखरने लगा है तभी तो उन्होने बीते कुछ दिन पूर्व इस टीम के कुछ सदस्यों को इस पर जमकर लताड़ा ही नहीं बल्कि उन्हे ऐसा करने से साफ मना कर दिया। अब भला प्रमुख सचिव साहब को कौन समझाये कि हर नेता की अपनी किचन कैबिनेट होती है और वह उनसे ज्यादा विश्वास अपनी इस कैबिनेट पर करते हैं। करें भी क्यों नहीं, क्योंकि मुखिया के हित उनके हितों से जो जुड़े होते हैं। जहां तक ब्यूरोक्रेटस् का सवाल है वे कुछ एक ही उदाहरणस्वरूप मिलेगें जिनका नेता से जज्बाती सम्बंध रहा हो शेष ने नेताओं को यूज एण्ड थ्रो किया तो नेताओं ने भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया।
उत्तराखण्ड की राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में वह सब देखने को मिलता है जो शायद देश के किसी अन्य राज्य में देखने व सुनने को मिले। यह राज्य अपने पैदाईशी के दिनों से लेकर अब तक ब्यूरोक्रेसी के चुंगुल में इस कदर फंस चुका है कि यहां लोकतंत्र का होना या न होना बराबर है। अधिक तर ब्यूरोक्रेटस् ने इस राज्य का इतना शोषण किया कि अब यह राज्य अपने शैशव काल में ही खोखला हो चुका है। यहां के जल जंगल और जमीन तक पर इन्होने डाका डाल अपनी बुलंद ईमारतों को खड़ा कर दिया है और यहां का निवासी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो चुका है। इस सबके पीछे यहां तैनात ब्यूरोक्रेट जिसे नौकरशाही भी कहा जाता है उसका पूरा हाथ है।
जहां तक मुख्यमंत्री के साथ अभी-अभी आये प्रमुख सचिव की बात की जाये तो चर्चा है कि वे अपने पुराने काकस में घिर चुके हैं और उन्ही के ईशारे पर वे मुख्यमंत्री कार्यालय का काम कर रहे हैं। यहीं कारण है कि मुख्यमंत्री के साथ वर्षों-वर्षों से काम करने वाले लोग उनकी आंखों की किरकिरी बनते जा रहे हैं। नौकरशाही का लोकतांत्रिक व्यवस्था पर इतना हावी होना लोकतंत्र के लिए तो खतरनाक है ही साथ ही यह प्रदेश के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। जब तक आम लोग मुख्यमंत्री तक अपनी समस्याओं का आदान प्रदान नहीं करेंगे तब तक प्रदेश में दूरस्थ गांव तक की समस्या का निदान नहीं हो सकता। ब्यूरोक्रेसी के भरोसे विकास की बात सोचना बेईमानी होगी। जब तक जनता से चुने गये व्यक्ति तक जानकारी नहीं पहुंचेगी तब तक विकास की किरण भी वहां नहीं पहुंच सकती। अपने प्रदेश अथवा देश में नौकरशाहों का ढांचा नेताओं के साथ सालों से कार्यकर रहे लोगों को अछूत समझता है यहीं कारण है कि वह उससे फीड बैक लेने में अपनी बेईज्जती भी समझता है जिससे जमीनी कार्य आज तक मूर्त रूप नहीं ले सके हैं, और विकासकार्य जमीन पर न होकर कागजों तक सीमित हैं। प्रदेश के मुखिया अब तक हुए इन कागजी विकास कार्यों को जमीन पर लाने के लिए जहां दृढ़ संकल्पित हैं वहीं नौकरशाही इसमें रोड़ा अटका कर इसे आगे बढ़ाने में व्यवधान डाल रही है।
No comments:
Post a Comment