31.7.10

।विकलांग जीवन:हाय तुम्‍हारी यही कहानी

भड़ास blog: वैसे जीवन के लिये संघर्ष हरेक प्राणी के अस्तित्‍व के लिये अनिवार्य है। लेकिन यदि प्राणी विकलांगता का शिकार हो जाये तो आज के समय में यह बहुत कठिन चुनौती है। समाज में आज जिस तरीके से गला काट कम्‍पटीशन चल रहा है,ऐसे समय में विकलांगों को कुछ सहयोग की दरकार बन गयी है।राजकीय शब्‍दावली में विकलांगों को फिजीकली चैलेंज कहने का आदेश है। अब यह एक शोध का विषय हो सकता है कि इस नये शब्‍द के प्रयोग से विकलांगों के प्रति हमारे नजरिये में क्‍या फर्क आया है।अब तक यह माना गया था कि प्रत्‍येक राजकीय संस्‍थांओं में विकलांगों की काबिलियत को परखकर विशेष शिक्षण, प्रशिक्षण दिया जायेगा ताकि वह अपनी योग्‍यता को विकसित कर अपना भविष्‍य बना सके व समाज को अपना योगदान दे सके। लेकिन यह सब सुनियोजित तरीके से नहीं हो पा रहा,अन्‍यथा काफी अधिक सरकारी बजट खर्च करने के बाद भी क्‍यों विकलांग सार्थक भूमिका नहीं प्राप्‍त कर पा रहें हैं।इसके स्‍थान पर किसी भी पब्लिक स्‍थान पर आप पहले से ज्‍यादा असहाय विकलांगों को पायेंगें। किसी भी विकलांग को भीख मांगते देखकर आप अक्‍सर परेशान होते होंगें।काफी संख्‍या में ऐसे औधौगिक घराने हैं,जो चाहते हैं कि उनका सहयोग ऐसे लोंगो के जीवन में सुधार ला सके तो अच्‍छा है। लेकिन ऐसे कारखानेदार ऐसे भी हैं,जो कहते हैं कि विकलांगों की आर्थ‍िक मदद तो कर सकते हैं लकिन वे उन्‍हें कामगार के तौर पर नहीं रख सकते हैं। क्‍योंकि इससे उन्‍हें दोहरा नुकसान उठाना पडेगा। वास्‍तव में यह अपनी सामाजिक जिम्‍मेदारी से मुंह मोडना है। क्‍योकि प्रत्‍येक उधोग में ऐसे काम जरूर होते है,जो सामान्‍य प्रकार के होतें हैं,जिसके लिये विकलांग उपयुक्‍त हो सकते हैं।बस हमें उनके रेजीडुअल गुणों का असेसमेंट करने की जरूरत है। कहते हैं यदि किसी में कोई कमी होती है,तो अल्‍लाह उसे खास करम से नवाजता है,वास्‍तव में यही रेजीडुअल गुण कहलाते हैं। अनेक विकलांग इन्‍हीं गुणों के बल पर समाज में शान से स्‍थापित हैं।हम सब ऐसे अनेक लोंगों को जानते होंगें,जिन्‍हें विकलांगता कभी आडे नहीं आयी होगी। हम फिल्‍म उधोग के रविन्‍द्रजैन जी को अच्‍छी तरह जानते हैं।लेकिन फिर भी काफी डिसऐब्लिड ऐसे हैं,जिनके सामने कठोर चुनौतियां हैं। सरकार ने विकलांगों को नौकरियों में 3 प्रतिशत आरक्षण्‍ा कर रखा है,लकिन यह कानूनी दांव-पेंच में उलझगया है। अब्‍बल तो सभी सरकारी विभाग यह तय नहीं कर पाते कि उन्‍हें अपने कुल अभी तक की गयी नियुक्‍त पदों की गणना अनुसार आरक्षण देना है या कुल स्‍वीक्रत व कार्यरत पदों के आधार पर।दूसरे समान्‍य आरक्षण से कुछ बचे तो विकलांगों को अवसर प्राप्‍त हो पाये। क्‍योंकि इस प्रकार तकनीकी रूप से आरक्षण पचास प्रतिशत के उपर हो जाता है। इस मामले में जंगल की वह कहानी याद आती है,जिसमें एक बकरी की सहायता के लिये एक बन्‍दर काफी उछल कूद करता है। अन्‍त में जब बकरी को कोई राहत प्राप्‍त नहीं हो पाती तो बन्‍दर अपना स्‍पष्‍टीकरण देता है कि उसने बकरी की सहायता के लिये कोई कसर नहीं छोडी,ऐसे में उसने अपनी जिम्‍मेदारी पूरी कर दी है।क्‍या सरकार के आधे-अधूरे मन से किये गये प्रयासों के बारे ऐसा ही कुछ है। मुझे एक बार राष्‍ट्रीय अन्‍धता संस्‍थान देहरादून व लुधियाना का अवलोकन करने का अवसर मिला। निि‍श्‍चत रूप से देश के कुल ऐसे चारों संस्‍थान अपनी क्षमता अनुरूप सराहनीय कार्य कर रहें हैं।लेकिन लुधियाना संस्‍थान के एक कटु अनुभव का जिक्र करना बहुत जरूरी है।वहॉं में कुछ सहयोगियों के साथ था। जहॉं हम ठहरे थे,वहॉं एक विदेशी बूढी औरत रहती थी। इस महिला की उम्र काफी अधिक थी।वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी।इस उम्र में भी वे काफी सुन्‍दर थीं। उनके कपडे काफी गन्‍दे व फटे थे। वो जिस कमरे में रहतीं थी,वह काफी अस्‍त-व्‍यस्‍त व गंदा था। हमारे वहॉं पहुंचते ही वे जोर-जोर से अंग्रजी बोलते वहॉं आ गयीं।उनका सबसे पहले सामना मुझसे ही हुआ। हममें से किसी की अंग्रेजी अच्‍छी नहीं थी।लिहाजा पहली नजर में हम सब एक दूसरे के कमजोर अंग्रेजी ज्ञान पर हँसने लगे। लेकिन हमारा यह व्‍यवहार उनको अच्‍छा नहीं लगा,वे जोर-जोर से हम सबसे नाराजगी व्‍यक्‍त कर रहीं थीं। उनको नाराज होते देखकर हम सब चुपचाप कमरे छोडकर बाहर चले गये।उनके बारे में पता चला कि वे लुधियाना संस्‍थान की स्‍थापना के समय के सबसे पहले अंग्रेज निदेशक के साथ स्‍टेनो के रूप में भारत आकर बस गयीं।अब उनकी मानसिक स्थिती अच्‍छी नहीं हैं। वे बहुत अच्‍छी स्‍टेनो थीं। वे खाना बनाने की अवस्‍था में नहीं थीं। उनका बहुत बुरा हाल था,उसको देखकर में स्‍वंय बहुत दुखी रहा। वहॉं के मैस संचालक से मैने निवेदन किया कि वह उन्‍हें अपने हाथ से सुबह शाम खाना खिला दिया करे तो यह बहुत नेक काम होगा।लेकिन मेरा दुख यहीं खत्‍म नहीं हुआ। रात होते ही मेरे जहन व्रद्ध असहाय महिला का विचार चल रहा था,कि रात के लगभग ग्‍यारह बजे मेर बराबर के कमरे से चीखने की आवाज आने लगी। मेरे साथ मेरे कमरे में मेरा दोस्‍त दूसरे बैड पर था। हम लोगों ने उठकर सबसे पहले देखा,पता चला कि तीन-चार द्रष्टि बाधित लडकियों के कमरे में तीन लडके घुसकर लडकियों से जबरदस्‍ती करने की कोशिश कर रहे थे।यह देखते ही हमने उन लडकों को एकाध हाथ जड दिये,वे लडके शराब के नशे में थे।उन लडकों ने उल्‍टे हम दोस्‍तों पर आरोप लगा दिया। लडकियां अन्‍धी थीं,वे किसी को देख नहीं सकती थीं। वो घबराहट में कँपकँपा रहीं थीं। सुबह होने पर हम सबने संस्‍थान के निदेशक से मिलकर शिकायत की,उन्‍होंने जॉंच कराकर दोषी को दण्‍ड दिये जाने की बात कहकर हमें रूखसत किया। लेकिन विकलांगता के सामने चुनौतियों के सम्‍बध में ये मेरे भाई के अनुभव काफी अनंत व द्रवित करने वाले हैं।क्‍या हम मानकर चलें कि विकलांग जीवन की कहानी इसी तरह दर्दनाक बनी रहेगी।क्‍या हमारी सभ्‍यता हमें इनके प्रति सदाशय नहीं बना सकती।इस आलेख के काफी अंश मेरे भाई की डायरी से हैं।

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