कल दिवंगत पत्रकार प्रभाष जी की जयंती थी लेकिन मेरा फोन डेड होने के कारण मैं उन्हें अपनी शब्दांजलि अर्पित नहीं कर पाया.सामाजिक से लेकर खेल तक हर क्षेत्र पर,हरेक मुद्दे पर प्रभाष जी की गहरी पकड़ थी.लेकिन ऐसी पकड़ रखनेवाले पत्रकारों की तो हिंदी जगत में कोई कमी है नहीं.वास्तव में जो चीज उन्हें भीड़ से अलग करती थी वह थी अपने मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति उनकी पक्की प्रतिबद्धता.उन्होंने सरकारी विभागों द्वारा दी गई सूचनाओं पर विश्वास नहीं कर पत्रकारों को वास्तविकता का पता लगाकर खबर निकालने की प्रेरणा दी और हिंदी में खोजी पत्रकारिता की शुरुआत की.बाजारवाद और उपभोक्तावाद से वे पूरी तरह अप्रभावित रहे.पेड न्यूज़ (पैसे लेकर ख़बरें छापना) के बढ़ते प्रचलन से वे क्षुब्ध थे और इसके खिलाफ उन्होंने प्राणांत तक संघर्ष किया.पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ते नैतिक स्खलन से भी वे चिंतित थे और इसके खिलाफ आवाज भी उठाई.लेकिन जगाया तो उन्हें जाता है जो सोये हों जो जानबूझकर नहीं जागना चाहते हों उन पर तो न तो प्रेरक शब्दों का ही प्रभाव होता है और न ही उत्तम कर्मों का.इसलिए प्रभाष जी द्वारा पत्रकारिता रूपी महासागर में उत्पन्न किया गया विक्षोभ भी जल्दी ही शांत हो गया और सबकुछ पहले की तरह सामान्य हो गया.धरती अभी भी घूम रही है और पत्रकारिता-क्षेत्र के नैतिक पतन की गति और भी तेज हो गई है.
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