29.7.10

क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं?
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मैं मुस्तफ़ा अब्बास
पिछले पचास वर्षों से भी ज्याद समय से
रह रहा हूं
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
समाज के बीच
बचपन में...गुल्ली-डंडों और कन्चों के साथ
मैं भी खेला हूं,यहां के बचपने के साथ
मैंने भी चढ़ी हैं सीढ़िया
इस धर्मनिरपेक्ष समाज को चलने वाले
स्कूल और विश्वविद्यालयों की
मैंने भी पढ़ा है पाठ इन विश्वविद्यालयों में
धर्म और एकता को...बनाए रखने का
मैं भी रहा हूं...गवाह उस आज़ादी का
जिसमें बिखरे-टूटे थे...हमारे भी अपने
मैने भी बजायी थी तालियां
दुश्मन के मुक्की खाने पर
मैं भी रहा हमेशा शामिल
उन आवाज़ों के साथ...जो उठी थी
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले समाज को
सम्मान दिलाने के लिए
मैं भी तो रहा हूं शामिल-
यहां के प्रजातंत्र की नींव रखने में
मैने भी चढ़ी हैं...यहां लोकतंत्र की सीढ़ियां
और मैंने भी रखता हूं,अधिकार...चुनने का उन्हें
जो दावा करते है...हमेशा साथ हमारे रहने का-
इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
मैं इस समाज की उस हर
खुशी और गम में भी रहता हूं मौजूद
जिसका वजूद इसके धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है-
और जो इसे धर्मनिरपेक्ष बनाता हैं,
मगर पता नहीं क्यों
जब-जब मेरे वजूद...मेरे सम्मान की बात आती है
तब-तब मुझे बार-बार-
खुद के होने का देना पड़ता है सुबूत
मुझे बताना पड़ा
मैं तुम्हारा अपना ही...हिस्सा हूं
मुझ में भी कूट-कूट कर भरी है-धर्मनिरपेक्षता
जिसका वास्तविक अर्थ सिर्फ और सिर्फ
तुम्ही नहीं जानते...जानता हूं मैं भी
फिर भी...बार-बार क्यों देनी होती है
मुझे खुद की पहचाना...अपने ही इस धर्मनिरपेक्ष समाज में?
कभी खुद के लिए आशियाने बनाने को...खोजने को
तो कभी खुद के भूखे पेट के लिए,
और तो और-
जब-जब धर्म के नाम पर,फैलाये जाते है-दंगे यहां...
जब-जब होते हैं हमले...आतंकी
या रची जाती है साज़िश,किसी हमले की-
हमारे अपनो के माध्यम से
अपनों को ही...तबाह करने को
तब-तब भी देनी होती है मुझे-
हर बार सफाई....
खुद के पाक साफ होने की...।
जब-जब हमारा ही अपना वजूद-
करता है....कत्ल किसी अपने का...
...शांत शहर में होती है हत्याएं...अपहरण
...या बनते हैं...रिश्ते...बिखरते है...रिश्ते
...टूटता है...उजड़ता है...हमारा ही अपना कोई
वहां भी मुझे ही देनी होती है...सफाई
इन सब में मेरे कहीं भी न होने की....।
मैं....मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरूद्वारों में-
टेकता हूं माथा...मांगता हूं...दुआ-
सबकी खुशी के लिए...ताकि कुछ तो शांति बनी रहे
आस-पास हमारे...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
अपने सारे दुःख-सुख भूल कर है-
जिनके बारे-
मैं कहना नहीं चाहता
लेकिन कहूंगा...आज,...मन की आंखों से भी कहूंगा,
कई-कई बार मैं भी रोया हूं...जी-भर कर
किसी अपने के छूट जाने के बाद
दूर कहीं...अंधेरे में...।
मैं भी करता हूं कोशिश,बार-बार...कई-कई बार
जुड़ने की...उस हर शख्स से
जो करता है...बातें...धर्मनिरपेक्षता की,ईमादारी की
एकता की...जीवन बनाये रखने की-
इसे बचाये रखने की....
मैंने भी उठाया है...गिरतों को कई बार
दिखायी है राह,कई बार भटकों को,
मगर फिर भी पता नहीं क्यों नहीं मिलता मुझे
आशियाना एक...सर ढकने को-
थोड़ा सा प्रेम...किसी अपने धर्मनिरपेक्ष साथी का
नहीं मिलती ज़मीन...एक पग मुझे यहां-
जहां खड़े होकर...मैं चिल्ला-चिल्ला कर कह सकूं
...हां...हां....मैं तुम्हारा ही अपना हूं-
मुझे समेट लो...अंजुरी में अपनी...
कुछ देर के लिए...ही सही,लगा तो लो गले से मुझे-
न छोड़े न धकेलें मुझे अंधेरे में
मैं भी रहना चाहता हूं...उजाले में,
जीना चाहता हूं,साथ-साथ तुम्हारे
समझना चाहता हूं मैं भी-
प्रेम-एकता की माला में गूंधने का अर्थ
तुम सब के साथ रहते हुए...।
मगर...फिर...भी नहीं देखती मुझे
कुछ आंखें ऐसी...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में
कई-कई मन्नतों के बाद भी
जो कम से कम भिगो तो दें मुझे
आंसुओं से अपने,
जो कम से कम देखें तो सही
एक बार मुड़कर मेरे चेहरे को गौर से...।
मगर मेरी आंखों के सामने
होता है फिर भी...सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा..
...और...थक हार कर आ में बैठ जाता हूं मैं-
अकेले में...इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के ही-
एक छोटे से कोने में...
कोसता हूं...खुद को ही कि-
इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज में मेरा वजूद
आखि़र है भी तो....क्या
मुझे तो हमेशा खुद के वजूद
खुद की ईमादारी...और...
इस देश-समाज के प्रति...खुद की प्रमाणिकता का
देना होता है बार-बार प्रमाण...
उन्हें जो मेरे अपने है...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में...।
कई बार सोचता हूं...कुसूर तो मेरा भी है
मैं तो यूं ही कोसता रहता हूं....धर्मनिरपेक्षता...को-
इसे चलाने वाले ठेकेदारों को,
जो सदियों से नहीं बचा पा रहे है...इसे-
आतंकवाद-भष्ट्राचार की दीमक से,
वह मुझे क्यों बचाएंगे-किस लिए बचाएंगे
मेरे वजूद के बारे में मेरी कौम के बारे में
आखिर क्यों सोचेंगे
मेरे होने न होने से...मेरी कुर्बानी...मेरी ईमानदारी से
इन्हें या इनकी धर्मनिरपेक्षता को
फर्क ही क्या पड़ता है
क्योंकि मैं तो यहां भी मुज़ाहिद हूं...वहां भी
और...पता नहीं मेरी कितनी पीढियां...इस दश्त में
जाएंगी...गुज़र यूं ही....
क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं...?
- जगमोहन 'आज़ाद'

1 comment:

  1. यह कविता सत्ता के निरंतर निर्मम होते जाते चरित्र और लोकतंत्र तथा सामान्‍य जन के बीच पसरते सन्‍नाटे को उजागर करती है।

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