29.7.10

Thursday 29 July 2010सारांश में पहला गिरमिटिया पढ़ाने की कोशीश


पहला गिरमिटिया : गाँधीभाई का महाकाव्यात्मक कथ्य

डॉ. त्रिभुवन राय



'पहला गिरमिटिया' न जीवनी है, न आत्मकथा। वह कोई शोधग्रंथ भी नहीं है और न ही इतिहास की कोई पुस्तक, यद्यपि इन सभी के तत्त्व उसमें घुले-मिले विद्यमान दीख पड़ते हैं। यह कृति अपने संपूर्ण अर्थों में वस्तुत: एक साधक सर्जक द्वारा रचित उपन्यास है, जिसमें उसकी अपनी संरचना की शर्तों पर इतर विधाओं की सामग्री का स्वच्छन्द, किन्तु प्रभावी रूप में प्रयोग किया गया है। इसके केन्द्र में सत्य और अहिंसा के महान योद्धा, बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के महानायक गाँधी द्वारा अपने दक्षिण अ़फ्रीकी प्रवास के दौरान किया गया अभूतपूर्व एवं अविश्वसनीय संघर्ष है, जिसकी बृहत्तर परिधि जहाँ एक ओर वह स्वयं और उनका परिवार है तो दूसरी ओर दिन-रात अमानवीय शोषण एवं यातना की चक्की में पिसनेवाले हजारों गिरमिटिये और दूसरे भारतीय प्रवासी हैं, जिनके तन-मन के घाव गाँधी भाई को बरबस अपने लाखों देशवासियों के लहूलुहान घायल चेहरों के बरक्स ला खड़ा करते हैं। साथ ही इसके भीतर जहाँ अपनी पहचान की लौ को बुझी राख के मानिन्द दबे-कुचले आत्मसम्मान के भीतर से कुरेदने और जगाने की कोशिश दिखायी देती है, वहीं आत्मविश्वास, एकजुटता, समरसता और जागृति की चेतना के उस प्रकाश को अँखुवाने का वह उपक्रम है, जो दक्षिण अ़फ्रीका के भारतीय प्रवासियों के क्षितिज के अँधेरे के साथ विशाल भारत के आकाश में परिव्याप्त तमस को भेदने की चुनौती झेलने के क्रम में सतत आगे बढ़ता दीख पड़ता है।


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