10.8.10

सम्मान का संघर्ष

महिला सशक्तिकरण का मुद्दा फिर गरमाया

सम्मान का संघर्ष


श्वेता सिंह


वैश्वीकरण के इस दौर में महिलाएं आज आसमान की बुलंदियों को छू रही हैं. अपने सपनों को साकार करने के लिए वे हर मुमकिन कोशिश भी कर रही हैं. काफी हद तक उन्हें सफलता भी मिली है, पर क्या, वास्तव में महिलाओं को उनका मुकाम हासिल हुआ है? घर की दहलीज पार करके वह पुरुषों की बराबरी करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम भी कर रही है. उसने उन क्षेत्रों में भी अपनी छाप छोड़ी है, जहां पहले सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व था. राजनीति के दाव-पेंच हो, या व्यापार जगत, या फिर खेल का मैदान, महिलाओं ने आज हर क्षेत्र में अपनी जगह बना ली है. यही वजह है, कि समय-समय पर महिला सशक्तिकरण का मुद्दा भी सामने आता रहता है. लेकिन! बहस और चर्चाओं के दौर में यह विषय एक बार फिर ज्वलंत हो उठा है. हमारे सामने कई सवाल भी बड़े आकार में आ खड़े हुए हैं, और मेरे अंदर का इंसान सोचने पर मजबूर है.
आखिर ये महिला सशक्तिकरण है क्या ?....आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो जाना! क्या महिलाओं को समाज में उनकी जगह मिल जायेगी? वह पुरुषों को अपने वज़ूद का अहसास करा पायेगी? नहीं, इस तरह औरत-आदमी के खेल में हम इंसान होने से चूक जायेंगे और इससे महिलाओं को समाज में अपनी पैठ बनाने में कामयाबी नहीं मिल सकती. जिस आज़ादी को हासिल करने के लिए महिलाओं ने अपना घर छोड़ा है, क्या उसे पैसों के बल पर हासिल किया जा सकता है? क्या पैसा उस आज़ादी का अहसास करा देता है? नहीं, सच्चाई ऐसी नहीं है. पैसों के पीछे भागते-भागते हम पर सामाजिकता से ज्यादा बाज़ारवाद हावी हो गया है, लेकिन फिर भी औरत वहीं खड़ी है, और इसका खामियाजा भी महिलाओं को ही भुगतना पड़ रहा है. क्योंकि आज भी महिला और पुरुष एक दूसरे के लिए सिर्फ भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं हैं. और जब ये किसी भी तरफ से हावी होता है तो कमजोड़ कड़ी टूट जाती है, यानी जिम्मेवार सिर्फ औरत! इससे ज्यादा और कुछ नहीं. इसलिए जरूरत हमारे सोच में बदलाव की है. भारत ही नहीं दुनिया के किसी भी दूसरे देश में महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक ही है.
आए दिन अखबार के पन्नों और तमाम न्यूज़ चैनलों पर महिलाओं के साथ अत्याचार और भेदभाव की खबरें सूर्खियों में रहती हैं, हमें यह सोचने पर मजबूर भी करती हैं, क्या महिलाओं को सचमुच उनका अधिकार मिला है? क्या वास्तव में वो निडर होकर जीने की कल्पना कर सकती है? क्या आज भी वह कदम-कदम पर असुरक्षा की भावना लिए हुए नहीं जी रही है? कि, न जाने अगले पल वह कहां और कैसी परिस्थिति में हो? वह अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त क्यों नहीं हो पायी है? ये डर आदमी और औरत में बराबर है. बेटियां और बहुएं तो अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं. आज भी दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न, बलात्कार के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. और जो इन वारदातों को अंजाम देते हैं वे और भी ज्यादा सहमे हुए हैं. इस घटना के घातक परिणामों से वाकिफ होने की वजह से वे भ्रूण हत्या, बाल विवाह के रास्ते पर ही चल देते हैं. ये डर जितना फैल रहा है, समस्या उतनी ही गंभीर होती जा रही है. इस पर अब तक लगाम नहीं कसा जा सका है और ना ही कोई सोच कायम हुई है. फिर हम आखिर किस महिला सशक्तिकरण की बातें करते हैं. किस आधार पर राजनेता यह दावा करते हैं कि आधी आबादी को उनका हक मिल गया है.
सच तो यह है कि महिला सशक्तिकरण की कल्पना करना उस मुराद की तरह है जिसकी पूरी होने की उम्मीद बहुत कम नज़र आती है क्योंकि हम क्या चाहते हैं? यह अब तक तय नहीं कर पाये हैं. जब तक इंसान अपने मनोरंजन के लिए विपरीत लिंगों का इस्तेमाल करने की मानसिकता नहीं बदलेगा तब तक औरतें यूं ही जुल्म का शिकार होती रहेंगी और हज़ारों वर्षों की ये सोच बिना किसी मजबूत इरादे के नहीं बदलने वाली. इस पुरुष प्रधान समाज में वह घुट-घुट कर जीने को मजबूर होगी क्योंकि वो महिलाएं जो कालांतर में इस सामाजिकता में ढल चुकी हैं, इसकी वकालत भी करेंगी. आज भी महिलाएं पुरुषों के आगे घुटने टेकने को मजबूर है. यही उनका धर्म बन चुका है. हर कदम पर उन्हें यह महसूस कराया जाता है कि उसे अपनी हद में रहना चाहिए. और यह हद तय करने का जिम्मा ले रखा है समाज के उन ठेकेदारों ने, जो इस दमन के अधिनायक हैं.
इस सामाजिक परिदृश्य में हम कह सकते हैं कि महिलाएं आज भी अबला ही हैं. उसे सबला होने में अभी और वक्त लगेगा और इसके लिए, इंसान को अपनी सामाजिक सोच बदलनी होगी. व्यभिचार का दौर थमने के बाद ही महिलाएं सुकून की ज़िंदगी जी पायेंगी. इसके लिए हम पूरी तरह से पुरुषों को ही दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. इसकी जिम्मेवार खुद महिलाएं भी हैं. ऐसी महिलाएं भी कम नहीं हैं जो अपने फायदे के लिए या कभी-कभार सिर्फ मनोरंजन के लिए भी गैर मर्दों से रिश्ता बनाने से नहीं चूकती हैं. यही वजह है कि आज भारत में भी लिव-इन रिलेशनशिप की जड़ें मजबूत हो चुकी हैं. विवाहेतर संबंधों का चलन बढ़ गया है. इसकी वजह से तलाक के मामलों में भी काफी इजाफा हो रहा है. इस प्रकार की कुछ समस्याएं अभी छोटी हैं लेकिन इनके आकार के बदलते ही हम और बड़े नैतिक पतन की ओर बढ़ जायेंगे. अब! अगर हम इसके लिए पाश्चात्य संस्कृति को दोष दें तो गलत होगा, क्योंकि खुद हम जिम्मेवार हैं इस पतन के लिए. कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक समाज में महिलाओं को अपनी जगह नहीं मिल सकती.

5 comments:

  1. आपका आलेख पढने पर लिखने का मन हुआ कि अहसास होते हुए भी कि यह गलत है अधिकतर लोग 'सब चलता है' की विचारधारा के पोषक हैं भोगवादी पुरुष ही हो एसा नहीं है - प्राक्रतिक विधान के अनुसार विपरीत लिंगी आकर्षण हेय नहीं है सामाजिक वर्जनाये स्त्री पुरुष दोनों के लिए दोनों के हित में हैं. परस्पर सम्मान की भावना मात्र शिक्षा से नहीं आ पाती हे. किसी परिवार में माँ के प्रति सम्मान की भावना उस परिवार के सभी पुरुष सदस्यों के मन में जितनी गहरी होगी वहां नीव पड़ती है और संस्कार पड़ता है किसी बच्चे के मन में किसी बच्ची के प्रति सम्मान की भावना का . इस समय जो केबल टीवी घर के भीतर घुस गया है और सारे फूहड़ द्रश्य दिन रात दिखा रहा है इस वातावरण से क्या आप आशा करती हैं महिलाये सशक्त होंगी ?

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  2. its nice thought we shall think and try to implement

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  3. its nice thought we shall think and try to impliment

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  4. राजेंद्र जी, आपने बिल्कुल सही कहा. 'सब चलता है' की मानसिकता ने आज लोगों को दिग्भ्रमित कर रखा है. महिला हो या पुरुष अपने अरमानों को पूरा करने के लिए 'सही या गलत' कोई भी रास्ता चुन लेते हैं. इसका खामियाजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ता है. यह सच है कि हर शिक्षित व्यक्ति सभ्य हो यह आवश्यक नहीं और ना ही हम कह सकते हैं कि अशिक्षित व्यक्ति असभ्य होता है. जब तक पुरुष और महिला एक-दूसरे को इज्जत नहीं देंगे तब तक यह समस्या बरकरार रहेगी. समाज तभी बदलेगा जब हम सभी सकारात्मक सोच के साथ चलेंगे और दूसरे को हीन और कमजोर समझ उसे प्रताड़ित करने की प्रथा समाप्त होगी. हम सभी एक दूसरे की भावनाओं का आदर कर समाज में हर किसी को उसकी जगह देंगे,तभी हालात सुधरेंगे.
    इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि घर-घर में केबल टीवी ने घुसपैठ कर ली है. आजकल बच्चे अपनी उम्र से पहले ही बहुत कुछ जान जा रहे हैं. दिन-रात टीवी पर फूहड़ दृश्यों को देखकर बच्चों के मन में तमाम सवाल पैदा होते हैं जिनका जवाब देना कई बार अभिभावकों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है. ऐसे में यही किया जा सकता है कि बच्चे किस तरह के कार्यक्रम देख रहे हैं, उस पर निगरानी रखी जाए. अश्लील कार्यकर्मों को देखने की इज़ाजत न दी जाये. हालांकि हर वक्त अगर हम उन पर नज़र रखेंगे तो वे नाराज भी हो सकते हैं. इसलिए बेहतर होगा यदि हम उन्हें समय-समय पर सही-गलत के बारे में समाझाने की कोशिश करें. यह काम मुश्किल जरूर है पर यदि हम दोस्त बनकर अपने बच्चों के सवालों का जवाब देंगे तो यकीनन वे समझने की कोशिश करेंगे.

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