9.8.10

दुधारू पशुओ की कमी



सिवनी । विगत कुछ दिनों से जिस तरह से लगातार दुधारू पशुओं की उपयुक्त गुणवत्ताओँ में हो रही कमी एवं पशुपालन महंगा होने के कारण पशु पालकों का पशुओं से होता मोह भंग चिंतनीय ही नहीं बल्कि सोचनीय है, जिसके कारण निरंतर दूध में कमी आने के साथ ही साथ दूध की गुणवत्ता में भी प्रश्न चिन्ह लग गया है एवं इस सबका असर इतना दुर्भाग्य पूर्ण है कि आने वाले दिनों में हमारी आने वाली पीढ़ी दूध का पीना तो छोडिय़े, दूध का स्वाद भी नहीं पहचान पायेगी, जिससे शाराीरिक दुर्बलता तो बढ़ेगी, साथ ही साथ बच्चेंा का मानसिक विकास भी रूक जायेगा, इसके लिए समाज के साथ शासन को भी इस ओर जरूरी कदम उठाने आवश्यक है, जिससे इस तरह से बढ़ती हुई विसंगति एवं बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन देश के लिए खतरनाक है।
सरकारी आंकड़ों में पशु धन
चौकिए मत 100 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में अब लगभग 16 करोड़ पशु बच्चे है, मरे पर सौ दूररे वाली कहावत इस पर भी पशु कल्लगाहों की संख्या बजाये घटने के बढ़ रही है। अगर आज सिन्थोटिक दूध बंद हो जाये तो दूध और सोना एक भाव बिकेगा। केन्द्र सरकार के डिपार्टमेंट आफ एनीमल हसबेंडरी के आंकड़ों पर अगर यकीन करा जाये तो 1951 में 40 करोड़ जन संख्यक पर 15 करोड़ 53 लाख, 1992 में 93 करोड़ पर 20 करोड़ 45 लाख 1977 में 19 करोड़ 47 लाख, 2003 में 18 करोड़ 51 लाख 80 हजार, 2008-09 में 16 करोड़ बचे है, जबकि 1951 में प्रति 3 लोगों पर 1 पशु था, अब 2006 में 7 लोगों पर 1 पशु रह गया है। इसके पीछे देखा जाये तो मुख्य कारण है आये दिन हजारों पशुओं की तस्करी दूसरा हर साल बड़ रहे पशु वध्रगह जरा सोचिये।
मूक जानकारों की माने तो पशु वधु ग्रह में अपंग या मरणासन पशुओं का कटान चिकित्सा अधिकारी की अनुमति से हो सकता है, जो नहीं होता ऐसा करने वाले कुछ पैसा देकर यह प्रमाण पत्र हासिल कर लेते है। कई जगह तो यह भी नहीं, डॉ. कपडिया के अनुसार पशु को स्वाभाविक मृत्यु होने पर काटा जाना चाहिये। बात सिर्फ दूध की नहंी मानव जीवन की है।
आज गोबर के अभाव में अंधाधुंध यूरिया का प्रयोग हो रहा है। जो जेव के साथ-साथ पर्यावरण व खेती के लिए अच्छा नहीं है और यह किसान को भारी भी पड़ता है। कृषि पर हो सब निर्भर है। नतीजन खाद्य पदार्थो की कीमतें आज आसमान छू रही हैं। अगर अब भी सरकारें या हम नहीं चेते तो मावा, पनीर, लस्सी, आइसक्रीम, चाय, काफी या मिठाइयां बीते दौर की बात बन जायेगी और हमारी जिंदगी बदरंग जरा सोचे कई लोगों से चर्चा करने पर उनका कहना था, सरकार पशु पालन ाको बढ़ावा दें साथ ही इस पर सबसिडी भी दी जाये, इसका प्रचार-प्रसार हो नहीं तो वह दिन दूर नहंी जब बच्चे दूध को तरस जाएंगे।
पैकेट वाले दूध पीते है बच्चे -
ग्रामीण क्षेत्रों में तो बच्चो को गाय नही तो भैंस का दूध मिल ही जाता है लेकिन शहरों में पैकेट बंद दूध ही बच्चों को पीने को मिलता है । जो सिंथेटिक दूध होता है । यह दूध गाय या भैंस का न होकर केमिकल युक्त होता है जो धडल्ले से बेचा जा रहा है । पहले के जमाने में कहा जाता था कि गांव में तो दूध की नादियां बहा करती थी लेकिन अब बच्चों को पीने के लिए स्वादिष्ट व सही दूध तक नही मिल पा रहा है । दूध की इस बढ़ती मांग को पूरी करने हेतु सिंथेटिक दूध तैयार किया जाने लगा जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । इस दूध के सेवन से बच्चे शारीरिक व मानसिक रूप से जहां कमजोर बन रहे है । वहीं वे अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रासित भी हो रहे है ।
आये दिन होता है पंजीबद्ध मामला गौकशी का -
शास्त्रों मे वर्णित है कि गाय की हत्या करना या उसे पीड़ा पहुंचाना जन्म दायिनी माता की हत्या करने के समान है । इसके बावजूद कत्लखानों में प्रतिदिन सैंकड़ो गायों की हत्या सिर्फ मॉस प्राप्त करने के लिए की जा रही है। कत्लखानों में बढ़ रही गायों की मांग के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों से इस व्यापार में लिप्त लोगों द्वारा गौवंश की खरीद फरोख्त दिन प्रतिदिन दिन दूनी रात चौगुनी की जा रही है । इन लोगों द्वारा गौ पालकों को गाय की अच्छी कीमत देकर गाय को सीधे कत्लखाना पहुंचाया जा रहा है । वहीं स्थानीय स्तर पर चोरी छिपे गाय का वधन कर मॉस विक्रय किया जाता है । एक और सरकार गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाते हुए इस तरह के कृत्य करने वालों को अपराधी करार देती है वहीं दूसरी और कत्लखानों को संरक्षण प्रदान करती है । इससे सरकार की नियत स्पष्ट होती है । कि शासन गौवंश का अपेक्षित संरक्षण नही करना चाहता वहीं कत्ल खाने खोलकर मॉस को विदेशों में निर्यात कर धन कमाना चाहता है इस तरह शासन की दोहरी नीति से गौवंश का अस्तित्व संकट में पड़ गया है।
नही बनी योजनाएं -
कृषि प्रधान देश में तभी आर्थिक उन्नति आ सकती है जब प्रत्येक घरों में गौपालन की अनिवार्यता हो । वही गाय पालन में रूचि रखने वालों को आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए । एवं पालन करने वाले व्यक्ति यों के आर्थिक स्तर में सुधार भी आ सकता है तथा व्यवसाय के नाम पर ऋण देने की भी योजनाएं चलाई जा रही है लेकिन वह अभी भी प्रभावी एवं सरल नही है ।

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