दीवाना भँवरा मचल जाता है,
पागल परवाना जल जाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.
पत्तों पे पड़ी सुबह की ओस
जैसी कभी इसमें मासूम नमी,
ताज-ओ-तख्त भी हिला दे
ऐसी कभी इसकी ओजस गर्मी.
पावन कशिश की तपन में तो
हिमालय भी दहल जाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.
डगर होती बड़ी ये मुश्किल
कड़ी तपस्या पड़ता है करना,
पवित्र था जानकी का संयम
पड़ा था अग्निपरीक्षा से गुज़रना.
सच्ची हो गर तड़प मिलन की
फिर किसे राजमहल भाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.
दीवानापन था तुलसीदास का
विषधर भी लगा डोर समान,
लगन थी सावित्री की ऐसी
यम से छीन लाई गयी जान.
मीरा की भक्ति हो जाती अमर
भले दुनिया से वो गरल पाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.
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