वर्षों पहले माइकल जैक्सन के मुम्बई और मातोश्री आगमन पर शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा था-यह अविस्मरणीय क्षण था.वो आए,उन्होंने हमारे टॉयलेट का इस्तेमाल किया,हमारे बिस्तर पर सोये और हमारे डायनिंग टेबुल पर भोजन किया.अभी कुछ दिन पहले भारत आए चीन के प्रधानमंत्री के बारे में भी यही कहा जा सकता है.कम-से-कम भारत को तो उनकी इस यात्रा से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.उनसे पहले जब ओबामा भारत की यात्रा करके वापस लौटे तब भी इसी तरह के प्रश्न उठे थे कि गरीब भारत ने तो उनकी झोली में ५० हजार नौकरियां डाल दीं लेकिन बदले में उसे क्या मिला?सिर्फ यूएनएससी की स्थाई सदस्यता का लॉलीपॉप और उसे भी कुछ ही दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत ने यह कहकर भारत के हाथों से छीन लिया कि निकट भविष्य में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सुधार की कोई सम्भावना नहीं है.हमने यानी दुनिया के सबसे गरीब और कुपोषित देश भारत ने चीन की भी झोली में १०० अरब डॉलर का व्यापार डाल दिया है.फ़िर से दानवीर बनते हुए एकतरफा तौर पर.जहाँ ओबामा ने हमें कई आश्वासन दिए थे चीन ने आश्वासन का कोई लॉलीपॉप भी नहीं दिया.वर्ष २०१५ तक आपसी व्यापार को १०० अरब डॉलर तक पहुँचाने के अतिरिक्त ५ अन्य समझौते भी हुए जो प्रकृति में ही विचित्र हैं. हमने उस चीन से मीडिया के क्षेत्र आदान-प्रदान का समझौता किया जिस चीन में मीडिया है ही नहीं.न जाने क्या खाकर और क्या सोंचकर हमारे कूटनीतिज्ञों व राजनेताओं ने यह समझौता किया?समझौते के अनुसार भारत और चीन बैंकिंग और अन्य आर्थिक क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ाएंगे.अभी तक चीन के साथ हमारे जिस तरह के आर्थिक सम्बन्ध रहे हैं उससे यही सम्भावना बनती है कि आगे भी मक्खन-मलाई चीन मार जाएगा और सिर्फ छाछ हमारे हाथ लगेगा.अगर हमारा नेतृत्व शक्तिशाली होता तो भारत को भी बदले में बहुत-कुछ मिल सकता था.लेकिन हमें न तो नत्थी वीजा की समाप्ति के मोर्चे पर और न ही पाकिस्तानी आतंकवाद के मोर्चे पर ही कोई आश्वासन मिला.चीन जाहिर तौर पर तो भारत के साथ सहयोग की कसमें खा रहा है.जबकि उसकी समस्त नीतियाँ भारत-विरोधी हैं.चीन हमारे पड़ोसी पाकिस्तान,नेपाल,म्यांमार,श्रीलंका और बंगलादेश के साथ रणनीतिक संबंधों का विस्तार कर रहा है.पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में वह विद्युत ऊर्जा संयंत्र,डैम और हाईवे बना रहा है और पाकिस्तान के ग्वदर बंदरगाह से सिकियांग तक तेल पाईप लाईन का निर्माण कर रहा है.भारत के बाद पाकिस्तान जाकर वेन जियाबाओ ने जो कुछ ही कहा और जिस तरह से कहा उससे भी हमारी अंधी,बहरी और गूंगी सरकार को यह समझ जाना चाहिए कि चीन कभी हमारा मित्र साबित नहीं होनेवाला.भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार चीन के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की संसद में चीन को पाकिस्तान के सुख-दुःख का साथी बताते हुए हर चुनौती में पाकिस्तान का साथ देने की कसमें खाईं.चाहे मुम्बई हमला हो या पूर्वोत्तर का आतंकवाद प्रत्येक स्थान से चीनी हथियारों की बरामदगी क्या दर्शाती है कृष्णा खुद ही समझ सकते हैं?उनमें इतनी समझ तो होगी ही कि वे इन संकेतों में निहित संकेतों को समझ सकें.हमारे अन्य पड़ोसी देशो को भी अपने धनबल के बल पर उसने अपने पक्ष में कर लिया है और इस प्रकार हमारे खिलाफ रणनीतिक कोरिडोर के निर्माण में लगा है.अभी कुछ ही दिन पहले चीन के प्रजातंत्र-समर्थक नजरबन्द नेता लिऊ जिआओबो को शांति का नोबेल पुरस्कार देने के लिए ओस्लो में आयोजित समारोह में हमारे कई पड़ोसियों के प्रतिनिधि चीन के समर्थन में अनुपस्थित थे.इतना सब होते हुए भी भारत-सरकार चीन के साथ व्यापारिक समझौता कर रही है जो भविष्य में भी वर्तमान की तरह ही एकतरफा साबित होने जा रहा है.हम तब तक चीन के साथ बढ़ते व्यापारिक असंतुलन को दूर नहीं कर सकते जब तक हमारे औद्योगिक उत्पादन की गति चीन की गति से तेज नहीं हो.एक अन्य अद्भूत गुलाम मानसिकता वाले समझौते के अनुसार सी.बी.एस.ई. सिलेबस में चीनी भाषा की पढाई को शामिल किया जाएगा.अगर कोई भारतीय चीनी भाषा को पढना चाहता है तो पढ़े लेकिन इसे सिलेबस में शामिल करने का क्या तुक है?मैं वरिष्ठ राजनेता डॉ. कर्ण सिंह को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने चीन द्वारा नत्थी वीजा जारी करने का विरोध करते हुए जियाबाओ के हाथों सम्मान लेने से साफ तौर पर मना कर दिया और साथ ही भर्त्सना करता हूँ सम्मान प्राप्त कर छाती चौड़ी करनेवाले माक्सवादी नेता सीताराम येचुरी की जिन्हें आज भी भारत से ज्यादा चीन से प्यार है.दुर्भार्ग्यवश हमारे देश में चीन समर्थक राजनेताओं की एक लौबी पहले से ही मौजूद है अब उद्योगपतियों की भी एक इसी तरह की लौबी तैयार हो गई है.कुल मिलाकर चीनी प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान चीन का सिक्का खूब चला या अगर यह कहें कि सिर्फ चीन का ही सिक्का चला तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.उसने हमसे जो चाहा ले लिया और हमें बदले में दिया कुछ भी नहीं.प्रगाढ़ आर्थिक संबंधों के बावजूद भी हम अपनी चीनी सीमा को लेकर निश्चिन्त नहीं हैं.हमने बातचीत तो की लेकिन दबकर और डरकर और यह डर तब तक दूर नहीं तो सकता जब तक हम सैनिक और सामरिक स्तर पर उसकी बराबरी नहीं कर लेते.कभी नेपोलियन ने किसी यूरोपियन देश को जीतने के बाद कहा था कि हम आए,हमने देखा और हम जीत गए.दुर्भाग्यवश इस समय चीनी प्रधानमंत्री नेपोलियन और भारतीय प्रधानमंत्री पराजित देश के सेनापति की भूमिका में हैं.वेन जियाबाओ आए,उन्होंने हमारे नेताओं से बातचीत की और वार्ता की मेज पर बिना लड़े ही जीत गए.हमारा क्या है,हम तो १९७२ में पाकिस्तान के साथ जीती लड़ाई भी शिमला में समझौते की मेज पर हार चुके हैं.यह हार तो उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है!
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