कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |
कैसा शैशव और तरुणाई?
केवल सिसकी और रुलाई|
नियति नटी का नृत्य अनोखा
जब देखो आखें भर आयीं|
मस्त कोकिला भी रोती है जब पंचम स्वर में गाती है |
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |
मिटी नहीं हृदयों से दूरी,
कवितायें रह गयी अधूरी|
जाने कितना और है जाना?
यात्रा कब यह होगी पूरी?
संशयग्रस्त बना कर जीवन मृगतृष्णा छलती जाती है |
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |
पूरा दीपक, पूरी बाती,
तेल नहीं लेकिन किंचित भी |
बेकारी मजबूर बनाती,
अन्धकार का शाश्वत साथी |
तोड़ रहा दम इक दाने को पौरुष की चौड़ी छाती है |
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |
तेरा तो प्रभु सोने का है,
मेरी तो माटी की मूरत|
वंदनीय है तेरा आनन,
मेरी बचकानी सी सूरत |
चिंदी में लिपटे लोगों की छाया भी मुंह बिचकाती है|
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |
कहते हैं संघर्ष हमेशा
सत्य सदा विजयी होता है |
जिसमे साहस है वह जीता |
केवल कायर ही रोता है |
यम नियमों के बंधन वाली यह छलना छलती जाती है |
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |
bahut hi sundar bhava aur prawahapoorna chhand!
ReplyDeleteआदरणीय डाँ॰ साहब
ReplyDeleteकविता पर उत्साहवर्धक टिप्पणी देने के लिये आपका कोटिशः धन्यवाद
एक बेहतरीन और बहुत ही प्रभावशाली रचना।
ReplyDeleteवन्दना जी
ReplyDeleteउत्साहजनक टिप्पणी का शुक्रिया। आपका कोटिशः आभार