थोड़ा सा दुसरों के लिए भी करना सीखें
दिनांक – 6 फरवरी 2011
देश की तरक्की के साथ-साथ हमारे देशवासियों के रहन-सहन से लेकर सामाजिक स्तर की भी तरक्की होनी चाहिए, नहीं तो एक उन्नत देश का नागरिक कहलाने में हमें शर्म का अहसास होगा। यहाँ यह प्रशन उठता है कि जिस रफ्तार से देश ने तरक्की की, क्या उसी रफ्तार से हमारे देश में नागरिकों ने उन्नति की या हो रही है शायद इसका उत्तर नहीं में है। हमारे देश के सभी नागरिकों को उचित संसाधन के साथ-साथ उनकी मूल भूत सुविधाएँ उन्हें आज तक उपलब्ध नहीं हो पाया हैं यह उस कहावत को चरितार्थ करता हुआ प्रतीत होता है कि “उँची दूकान फिकी पकवान” विदेशी लोगों के बीच भारत की बहुत अच्छी छवि बनी हूई है लेकिन जब कोई विदेशी पर्यटक भारत आता है और यहाँ के शहरों से लेकर गाँवों तक भ्रमण करने के बाद उसकी राय बदल जाती है। वे लोग विदेश में बैठ कर कागजों में हमारे देश की तरक्की का हाल चाल पढ़ते हैं लेकिन वास्तविकता उससे भिन्न है। मुझे याद पड़ता है कि जब महाराष्ट्र के भुज मेँ हुए प्राकृतिक आपदा के समय भग्नावशेषों को उठाने के लिए विदेश से बहुत बड़ी-बड़ी क्रेने मंगवानी पड़ीं थी। उस समय उन क्रेनों के साथ आये विदेशी लोगों को ऐसा कहते हुए सुना गया कि लगता हैं कि भारत अभी भी हमसे सैकड़ों वर्ष पीछे हैं। वाकई यदि हम अन्य प्रगतीशील या बड़े देशों से तुलना करें तो हम अपने आप को बहुत ही पिछड़ा हुआ पाते हैं चाहे वह आर्थिक दृष्टि से हो, रहन सहन का स्तर या संसाधनों की दृष्टि से भी कुल मिलाकर हम कहें तो सभी क्षेत्रों में देश उस तरह की उन्नति नहीं कर पाया है, जो वास्तव में करना या होना चाहिए था। इसके कारण बहुत से होंगे लेकिन हम थोड़ा सा पीछे के गुजरे वर्षों को देखें सन् 1998 से 2000 के बीच का समय ऐसा गुजरा कि कुछ भी ठोस काम नहीं हो पाया। जबकि इस दरमियान न तो देश पर कोई युद्ध का खतरा था, और न ही देश कोई युद्ध में संल्गन रहा। देश में कुल मिलाकर शांति थी। हमारे देश ने तरक्की जरुर की, परन्तु जितनी होना चाहिए था उतनी नहीं हुई खास कर हमारे बुनियादी, सामाजिक और बेरोजगारी के क्षेत्र में, आज जनसंख्या से लेकर भ्रष्टाचारी तक धीरे-धीरे समस्यों का अम्बार लगता चला जा रहा है। सामन्यतः यह देखा गया की देश के नेता और पार्टियों को मुद्दा चाहिए और मुद्दे यदि खत्म हो जायेंगे तो नेता और पर्टी की क्या जरुरत रह जायेगी। इसिलए मुद्दे हमेशा बनाये रखने के लिए अक्सर यह देखा गया है कि समस्या का समाधान तुरन्त नहीं किया जाता है, या करना नही चाहतें हैं। जिससे समाज में पर्टी और नेताओं की जरुरत को हमेशा बनाये रखा जा सके। कुल मिलाकर यह कहना पड़ेगा कि हमारे देश की बहुतायत संख्या में जनता से लेकर नेता, पार्टियों में अपने समाज के प्रति आर्दश, मानवता, कर्तव्यता, संवेदनाओं का क्रमशः छय होता चला जा रहा है। इस तरह एक निश्चत समय सीमा तक पहुँच कर समाज में मनुष्यता का नाश हो जायेगा। एक समय तक जब-जब विझान ने मनुष्य के चाँद पर पहुँचने की बातें कहीं तब-तब बहुत जग हँसाई हुई, कि क्या मनुष्य कभी भगवान तक पहुँच पयेगा। भगवान का शाब्दिक अर्थ तो ‘भ’ से – भूमि , ‘ग’ से – गगन (आकाश) , ‘वा’ से – वायु (हवा) और ‘न’ से नीर (जल) होता है, वास्तव में यदि हम देखें इन चार शब्दों से संम्बध हमारे पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी से है। विना इन चार तत्वों के प्राणी जगत की कल्पना ही नहीं किया जा सकता है। जब तक विझान चाँद तक नहीं पहुंचा तब तक हमारे मानव समाज चंद्रमा को भगवान ही समझा जाता रहा। जब तक हम किसी वस्तु को पा नहीं लेते, चख नहीं लेते या देख नहीं लेते उस पर हम एकाएक विश्वास नहीं करते हैं यह एक मानविक प्रवृति या विचारधारा है। वास्तविक्ता यह है कि दुनिया में हमें जो भी दिखाई देता हैं वह सत्य नहीं होता। क्योंकि सत्य कभी भी दिखाई नहीं देता है। हम पलक झपकते ही होने वाले अनेकों परिवर्तनों को जो इस पृथ्वी के उपरी सतह और आन्तरिक सतह पर होते रहते हैं। उसे देख नहीं पाते या समझ नहीं पाते हैं। इसके लिए चैतन्यता के साथ-साथ सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है जो अमूमन व्यक्तियों के पास होता ही नहीं है या उस पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं। कर्म इस दुनियाँ में सभी प्राणी करते हैं लेकिन उनमे से कितने लोग ऐसे हैं जो अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित कर कार्य को संम्पन्न कर पाते हैं। मनुष्य अपने प्रारभ्य काल में ही कुछ मूल प्राकृतिक सौगात स्वरुप कुछ एक आचरणों को लेकर धरती पर जन्म ले, तदरुप आचरण, व्यवहार और व्यक्तित्व का स्वामी होता है। मनुष्य के शिशु का जैसा प्रारभ्य होगा वह अपने जन्म काल से उसी परिवेश को अपनाता जाता है। यहां एक बात अवश्य है कि एक शिशु अपने घर का परिवेश और संस्कारों को जल्दी अपनाता है, यदि उसे घर में ही सही आचरण-व्यवहार सिखने को न मिले या सिखाया न जाय तो शिशु बड़े होने पर वैसा ही आचरण- व्यवहार अपने मित्रों से, घर के लोगों से एवं अपने समाज के साथ करेगा। यदि आज हम अपने चारों ओर नजर उठा कर देखें तो हमको हमारे प्रश्नों का उत्तर मिल जायेगा। यह समाज यहाँ तक एक दिन में नहीं पहुँचा निश्चत रुप से हम केवल अपने लिए ही न सोंच कर थोड़ समय निकाल कर दूसरों के लिए भी कुछ करें और उनके वारे में सोंचे ।
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