रविकुमार बाबुल
आकंठ तक भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी सरकार और मिस्टर क्लीन का तमगा चिपकाये हुये बैठे कांग्रेस पार्टी के सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ही नहीं, बल्कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी अब यह भली-भांति समझ चली हैं कि ट्यूनिशिया में भड़की चिंगारी जिस मिस्र को लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये भड़का रही है, तब फिर उसकी ही सी यानी मिस्र जैसी ही महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के साये में नूरा-कुश्ती कर रहा भारतीय लोकतंत्र सवालों से न घिरे यह हो नहीं सकता है? जी... भ्रष्टाचार और रसूख के जिस खेल को खेलने में कांग्रेस पारंगत हो चली है, वह भारतीय लोकतंत्र को एक ऐसे मुहाने पर पहुंचाना या कहें ला खड़ा करना चाहती है, जहां फिर लोकतंत्र दिखलायी तो देता रहे लेकिन जनाब लोकतंत्र कहीं भी महसूसा न जा सके?मसलन आदर्श घोटाले में नामजद कांग्रेसी चव्हाण गिरफ्तार न हो? अपराधियों को ही कानूनी संरक्षण मिल जाये, इसलिये थाना में फोन खडख़ड़ा के कार्यवाही रोक दी जाये, और अपराधियों के बजाय पीडि़त को ही प्रताडि़त किया जाये और इस जंगलराज पर न्यायालय दस लाख रुपये का आर्थिक दण्ड लगा बैठे फिर भी वही विलासराव कांग्रेसी होने के नाते मुस्कुराते फिरें? खेल के बहाने हुये खेल में कांग्रेसी होने का फायदा न मिले कलमाड़ी को ऐसा हो नहीं सकता है, सो आजतलक आजाद हंै वह? पोस्को और लवासा को लेकर पर्यावरण मंत्रालय मूक सहमति का दुस्साहस तो जुटा बैठता है, लेकिन वेदान्ता तथा आदर्श को लेकर वह न सिर्फ एक अलग आर्दश गढ़ता भी है, बल्कि उस ओर बढ़ता भी है? एक मंत्रालय दो रास्ते पर चले निकले तो इसे क्या कहियेगा? यह फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि तमाम मंत्री ही नहीं खुद सी.बी.सी. जैसे पद पर आसीन शख्स को लेकर भी सरकार कुछ कर नहीं पा रही है या कहें करना चाहती है? जी... भारत मिस्र तो नहीं है, लेकिन इसे, उससे कमतर क्यूं आंका जाये सवाल यह भी है?लेकिन महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के दौर में जिस जेपीसी की मांग को सरकार ठुकराती आयी है, एक सवाल वहीं से खड़ा होता है, और सरकार को निशाने पर लेने में चूक नहीं करता है कि आखिर क्या सरकार का मतलब तमाम घोटालेबाजों को बचाने और घोटालों पर पर्दा डालने का भर का रह गया है? कानूनी प्रक्रिया के जिस बहाने को बनाकर वह इससे यानी जेपीसी से बचती है, तब पी.ए.सी. कोर्ट में कार्यवाही होने के समानान्तर कार्यवाही और जांच कैसे करता रह सकता है और जे.पी.सी. क्यों नहीं? हां... डी.एम.के. के जिस दलित त्रुप के पत्ते को कांग्रेस ने राजा से रंक बना कर रख दिया, देश को भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही करने का भरोसा दिखलाकर, सवाल यह उठता है कि वास्तव में दूरसंचार मंत्रालय के राजा खुद राजा थे या वह मनमोहन सिंह सरीखे राजा के दरबार में मात्र एक रत्न थे? जिस पर मनमोहन सिंह सरीखे राजा को ऐतबार भी था ओर भ्रष्टाचार को किस सलिके से संवारा और गढ़ा जाये इसका भार भी? राजा भले ही शरद पवांर की तरह सफल न हुये हों, क्या जिस तरह का भ्रष्टाचार देखने को मिला या सामने आया है, वह सिर्फ राजा को ही सलाखों में पहुंचाने की हैसियत रखता है, या मनमोहन सिंह की समूची सरकार को भी कटघरे में खड़ा करता है?आज महंगाई को लेकर त्राहि-त्राहि मची हुयी हैं, और पवांर है कि अपने मंत्रालय से ज्यादा खेल(क्रिकेट) देखने में व्यस्त है, बचा-खुचा उनका समय लवासा और शक्कर कारखानेदारों की चिन्ता में गुजर जाता है, बचे समय की छिछलन में महंगाई रोकने के प्रयास की उनसे उम्मीद क्यूं कि जाये? ऐसे में मनमोहन सिंह है कि भ्रष्ट सरकार का सारथी बनकर, मिस्टर क्लीन का तमंगा फिर भी चिपकाए रहना या रखना चाहते हैं? जेपीसी की मांग पर आठ फरवरी को प्रणव दा सरकार के हित में क्या गढ़ पाते हैं, प्रतीक्षा करनी होगी लेकिन अब यह तय हो चला है कि 30 जनवरी 2011 को गांधी के बहाने जिस तरह देश ने पहली बार अपनी आवाज मुखर की वह लोकतंत्र में नई इबारत लिखेगा?
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