रविकुमार बाबुल
ग्वालियर में आजकल शहर को सुन्दर बनाने की जुगत में, जिस तरह अतिक्रमण के नाम पर तोड़ फोड़ चल रही है, इस पर उठे कई सवालों ने तो महल गेट पर खड़े प्रशासन को सरे-राह कह लें या सरे-आम चुनौती देते हाथी सा विशाल आकार ले लिया है? जी... हाथी के सवाल पर प्रशासन भले ही भीगी बिल्ली बन दुबकने की कोशिश में लगा हो या फिर दिख रहा हो, लेकिन कई सवाल कैंसर की मानिंद अब इस मुहिम की वास्तविकता से जा चिपके है? और उसके जबाव जिस दिन प्रशासन ढूंढ़ लेगा, यकीन मानिये, सौ फीसदी सच है यह कि उस दिन ला-ईलाज कैंसर भी ठीक हो जायेगा या रहेगा ही नहीं इस दुनिया में?जी... क्या कहियेगा प्रशासन को, जो जनता को सुविधा मिले, इसके साथ ही शहर भी सुन्दर दिखलायी दे, उसने शहर को बुलडोजरों से रौंद कर रख दिया, हाथी की-सी मदमस्त चाल चल वह सब कुछ ठिकाने भी लगने देता रहा और शहर को सुन्दर बनाने के जोश का जश्न भी मनाना चाहता रहा? पर जिस जश्न को वह मुबारक तथा गद्दाफी की राह पर चल कर मनाना चाहता है, वह इतना आसान नहीं है? क्यंू की विकास के नाम पर जो तमाम धन दोनों हाथों से उलीचा जा रहा है, वह शहर के लोगों का है, और शहर के लोगों ने ही इसे विभिन्न करों के रूप में अदा कर जमा किया है, तथा यह कर भविष्य में भी इनसे ही लिया या वसूला जाना है, फिर गद्दाफी बनने की यह मुबारक जिद् क्यों और क्या मायने रखती है, इसे सहज ही समझा जा सकता है? जी... जनाब एक डिवायडर को तोड़कर फिर डिवायडर बना लेना, याद कीजिये स्टेशन बजरिया रेस कोर्स रोड़? चौराहों पर हाईमास्ट लैम्प लगाना फिर उसे उखाडऩे की तैयारी करना? शहर सुन्दर बनाने के लिये भूलियेगा मत साइंस कॉलेज चौराहा? माधवनगर गेट के ठीक सामने एक चौराहे को रचने का प्रयास पसंद नहीं आया तो फिर तोड़ दिया गया? जी... इसे कागज पर उकेर कर न तो काम करने वाले का भला होता, न ही काम करवाने वाले का, क्योंकि जनता से वसूली गयी राशि गड्ढ़े में डालने के लिये कागज नहीं खालिस जमीन का होना जो जरुरी था? खैर... इन सबसे उपर देश को आजाद करवाने वाले शहीदों की स्मृत्ति में बना विजय स्तम्भ, जिसे कभी नगर पालिका निगम ने ही राशि अपने खजाने से खर्चने के बाद सजाया था अब उसे ही बुलडोजरों के नुकों से छलनी-छलनी कर दिया गया है? जी... लोकतंत्र है... अगर यह प्रशासनिक अधिकारी दिल्ली चले जाये और बाधा संसद या इंडिया गेट बन चले तो जनाब यह उसे छोड़ देंगे, या फिर ...? जी... संसद या उसके भीतर पास किये गये कानून क्या मायने रखते है हमारे साहब के सामने? देख लें, जी... नियम फुटपाथ को लेकर भी है और ऐसे में शास्त्री पुल पर वाहन चालकों की सुविधा या सुन्दरता के नाम पर पैदल यात्रियों के फुटपाथ पर प्रशासन ने जिस तरह अतिक्रमण किया है, इससे कौन उसे मुक्त करवायेगा? इसके लिये भी एक तय नियम है उस नियम को बांच लिया था? जी... नहीं तब अगर जनता करे तो वह मुजरा (अतिक्रमण) है और प्रशासन करे तो डांस (जायज या फिर विकास) है। शहर को सुन्दर बनाने के बीच ही उक्त कुरूप सवालों के बीच एक सवाल यह भी उभरता है कि जिस तरह तोड़ फोड़ का मलबा सराफा से लेकर डीडवाना ओली तक बिखरा पड़ा है, उसने कितने लोगों की जान को जोखिम में डाल रखा है? मसलन कल सराफा में आग लगी यह आग अगर विकराल रूप धरती तो भले ही अतिक्रमण हटाने की मन मुआफिक मुराद पूरी होती, लेकिन फायर बिग्रेड वहां तक कैसे पहुंचती, जान कैसे बचायी जाती और इसकी जिम्मेदारी कौन लेता? जी... हादसे कभी कह कर नहीं आते है लेकिन शहर सुन्दर बनाने के नशे में धुत्त रह कर हादसों की तैयारी ही नहीं रखी जाये? इस सवाल का जबाव भी अनुत्तरित नहीं रहना चाहिये?पर जनाब शहर में तमाम अतिक्रमण है मसलन सार्वजनिक पार्को में, सार्वजनिक शौचालयों पर, सार्वजनिक पुस्तकालयों पर कभी इनको भी मुक्त करने का मन बनाइयेगा, उसी शिद्दत के साथ जिस तरह महलगेट पर अतिक्रमण कर बैठे हाथियों को छोड़ कर और फूलबाग के समीप मंदिर के हाथियों को कचरा गाड़ी में भर कर हटाने का जिस नियमानुसार कार्यवाही को आपने अंजाम दिया है, (जी... सिंधिया जी की मिल्कयत छूने से ही हाथ जो जल जाते है?) खैर... सवाल बहुत है और बड़े भी? आपके पाक मंतव्यों से ही जुड़े है पूछेगें जरूर जबाव चाहने की उम्मीद में, मसलन शहर सजाने के बहाने कितने लोहे-लंगर (कबाड़) निगम के माल खाने में पहुंचे और उनका क्या हुआ? और अगर पार्को या अन्य सम्पत्तियों से कोई चोरी हुयी है तो किस थाने में रिपोर्ट दर्ज हुयी है? सवाल कई है, पर हम नगर पालिक निगम जिंदाबाद तो नहीं लेकिन आर.टी.आई. जिंदाबाद तो कह ही सकते हैं?
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