मुन्नी अपनी करनी से बदनाम है या उसे बेवजह बदनाम कर दिया गया है;शोध का विषय है.लेकिन चाहे जैसे भी हो बदनामी तो बदनामी होती है;चाहे ओढ़ी हुई हो या थोपी हुई.मैंने सैंकड़ों विवाह-समारोहों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है लेकिन माँ कसम ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा.
मित्रों,२० फरवरी को मेरे अभिन्न-अजीज मित्र की शादी थी.मेरे मित्र अमीर घर में पैदा हुए समाजवादी हैं.कई-कई बार उनके द्वारा बेवजह ताकीद करने पर मैं निर्धारित कार्यक्रमानुसार दोपहर बाद ३ बजे उनके घर पहुंचा.न जाने क्यों मैं धनपतियों के घरों में जाकर बेचैन-सा हो उठता हूँ.इसलिए बोर होने से बचने के लिए एक साहित्यिक पत्रिका मैंने हाजीपुर स्टेशन पर ही खरीद ली थी;साहित्य अमृत का फरवरी अंक.करीब २ घंटे तक मैं मित्र के दरवाजे पर बैठे-बैठे उक्त पत्रिका के माध्यम से कभी नागार्जुन तो कभी नेपाली तो कभी केदारनाथ अग्रवाल तो कभी शमशेर तो कभी अश्क से मुलाकात करता रहा.मुझे झूठी औपचारिकता और झूठे दिखावे पसंद नहीं इसलिए भी ऐसे मौके पर मेरे लिए समय काटना मुश्किल तो जाता है.मैं जानता हूँ कि मेरा मित्र मुझसे अपार स्नेह रखता है और मेरे लिए उसकी शादी में शामिल होने के लिए बस इतना ही काफी से भी ज्यादा काफी था.खैर,विवाह-स्थल मुजफ्फरपुर से कुछ किलोमीटर दूर गाँव में था.मैं एक गाड़ी में सवार हुआ जिसमें कई मजदूर भी थे और काफिला चल पड़ा.रास्ते में हम एक लाईन होटल पर रुके;जहाँ नाश्ता-पानी का इंतजाम था.जिन्हें जाम पीना था पीया;मैंने तो जमकर पानी पीया.फिर हम जनवासा पर पहुंचे.बड़ा ही उम्दा इंतजाम था.छककर नाश्ता किया.बचपन में गोलगप्पे नहीं खाने की गलती को सुधारते हुए खूब गोलगप्पे खाए.
यहाँ तक तो स्थिति ठीक थी.जब हम लड़कीवाले के दरवाजे पर द्वार लगाने पहुंचे तो पाया कि कैटरिंग में भोजन परोसने के लिए लड़के कम लड़कियां ज्यादा रखी गई हैं.गाँव में तो ऐसा दृश्य मैंने आज तक नहीं ही देखा था;महानगर दिल्ली में भी कभी नहीं देखा.याद आया कि अभी पिछले साल अपने ही गाँव में गाँव की ही एक नाबालिग लड़की को बैंड की धुन पर नाचते देखकर मेरा मन कैसे खट्टा हो गया था.बहरहाल यहाँ बाराती लड़कियों पर अश्लील टिप्पणियां कर रहे थे और वे भी इस तरह से पेश आ रही थीं जैसे ये तो होना ही था.चुस्त जींस-टीशर्ट में बनी-ठनी लड़कियां.हमारे गांवों में भी पैसा ही सबकुछ होता जा रहा है देखकर दुखद आश्चर्य हुआ.
ईधर बारातियों में गोली फायरिंग करने की होड़ लगी हुई थी.दर्जनों बंदूकें गरज रही थीं.लाखों रूपये झूठे दिखावे में फूंके जा रहे थे.जब हम लौटकर जनवासा पर पहुंचे तो कथित सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो चुका था.हमने चूंकि पगड़ीवाली टोपी पहन रखी थी इसलिए हमें स्थान पाने में किसी तरह की असुविधा नहीं हुई.कुछ देर तक तो गायन का कार्यक्रम चला.फिर रिकार्डिंग डांस शुरू हुआ.५ लड़कियां काफी कम कपड़ों में आतीं और नृत्य प्रदर्शन कम देश प्रदर्शन ज्यादा करके चली जातीं.छोटे-छोटे बच्चों की भारी उत्साहित भीड़ जमा थी;कुछ बूढ़े भी उन पर अपना बुढ़ापा लुटाने को आतुर थे.तभी एक १४-१५ साल का बच्चा स्टेज पर चढ़ गया और लड़कियों के साथ कामुकता का प्रदर्शन करता हुआ भोंडा नृत्य करने लगा.इससे पहले एक गरीब मंच पर छेड़खानी करके अपनी धुनाई करवा चुका था.हम आश्चर्यचकित थे कि इस बच्चे को कोई क्यों नहीं कुछ कह रहा?थोड़ी ही देर में यह रहस्योद्घाटन हुआ कि जो व्यक्ति बार-बार हजार के नोट ईनाम में फेंक रहा था यह होनहार उन्हीं का एकमात्र पुत्र था.उस व्यक्ति की ईंट की चिमनियाँ थीं और वे मेरे मित्र के हो चुके या होनेवाले ससुर के सगे छोटे भाई थे.
वह बच्चा जब अपनी कथित मर्दानगी का प्रदर्शन करते-करते थक जाता और मंच से नीचे उतरने लगता तब उसके पिता उसे फिर से ऊपर बुला लेते और फिर से वह किसी अन्य नर्तकी के साथ नृत्य करने लगता.बच्चे की दोनों टाँगें ख़राब थीं.माता-पिता ने जरूर बचपन में पोलियो-ड्रॉप पिलवाने में कोताही की होगी.पिता की चौड़ी छाती बेटे के ठुमके के साथ और भी चौड़ी होने लगी.उसने मंच से ही घोषणा कि वह आर्केष्ट्रा पार्टी को आज डेढ़ लाख रूपये और दो कट्ठे जमीन का ईनाम तो देगा ही साथ ही इस साल की विश्वकर्मा पूजा के लिए भी अनुबंधित करता है वो भी साढ़े पांच लाख रूपये में.
मैंने गांवों में २०-३० हजार रूपये के कुल खर्च में लड़कियों की शादियाँ होते भी देखी हैं.लेकिन यहाँ तो उससे कई गुना सिर्फ दिखावे में न्योछावर किया जा रहा था.बार-बार सुपुत्रजी की फरमाईश पर या यूं कहें कि आदेश पर मुन्नी बदनाम हुई गाना बजता और कोई नर्तकी आकर उसके साथ नाचती.यहाँ नाचने वाला भी पैसा था और नचानेवाला भी.ईधर पुत्र की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था तो उधर पिता का सीना गर्व से फटा जा रहा था.मेरे पत्रकार मित्रों ने भी इससे पहले ऐसा अद्भूत दृश्य कभी नहीं देखा था.अंत में सभी नृत्यांगनाओं को एकसाथ उस जवान बच्चे के साथ नाचना था.एक के नितम्ब को उसने सरेआम दबा दिया और वह नाराज होकर नेपथ्य में चली गई.फिर अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए उस परमवीर ने दूसरे को अपनी बांहों में भर ही तो लिया.परिणामस्वरूप धनलोभी आर्केष्ट्रा संचालक को सभी नर्तकियों को प्रसाधन-कक्ष में भेजना पड़ा.सभा विसर्जित हो गई और अपने पीछे छोड़ गई अनगिनत सवाल.
पहला सवाल तो व्यक्तिगत था कि मेरा मित्र कैसे ऐसे परिवार के साथ सामंजस्य बिठाएगा?उसका दिल तो शीशे का है सोने या चांदी का नहीं है.अन्य कई सवाल भी मेरे सामने थे जो सामाजिक थे.विवाह एक सुअवसर है या कुअवसर?यह दो दिलों या आत्माओं के मिलन का अनुष्ठान है या धनबल के अश्लील प्रदर्शन का अचूक मौका?लक्ष्मी की सवारी हंस क्यों नहीं है उल्लू क्यों है?हम बुद्धिजीवियों पर उनकी कृपा क्यों नहीं होती जो उनका सदुपयोग कर उन्हें सम्मान दिलवाता.क्या लक्ष्मी को मूर्खों के हाथों लुटने में ही आनंद आता है?लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह था कि उस रात मुन्नी तो बदनाम हुई ही ईंट कंपनी का मालिक और उसका ईकलौता बेटा बदनाम हुआ था या नहीं?या फिर बदलते सामाजिक परिवेश में मुन्नी को बदनाम करके भी उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि तो नहीं हुई?
आपने तो मेरी पीड़ा को शब्द दे दिए । आधुनिकता की आंधी मेँ अभी और शर्मनाक स्थितियां आने वाली हैँ। समय रहते नहीं चेते तो हम अपने संस्कार इतिहास के पन्नों में टटोलेंगे ।
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