1.3.11

मेरे दुख...


दुख तो मेरा बढ़ता जा रहा है
सवालों और जवाबों को साथ लिए
कहीं दुआऐं के पुल है तो कहीं बदुआओं का सागर
समय की गुलाम होती जा रही हूं मैं
परिस्थितियों को थाम नहीं पा रही हूं मैं
हर रात तन्हा गुजरती है
हर सुबह होती है रोनी सी
हम तन्हा दुनिया से लड़ेंगे
बच्चों सी बातें लगती है
कहीं सब सिमटता नज़र आता है
खुशियां फैलती है तो कहीं
बिलखता चहरा.....
हर वक्त यही परेशानी है
कभी ये सोचा ना था कि
प्यार जो परम सुख देता है
कभी वो ही दुखों की दरियां बिछाता है।
हर वक्त एक अजीब सा दर्द है
इस तन्हा दिल में जो शायद किसी के लिए भी
नहीं है,
बस मेरी तन्हाईं के लिए
इस समाज में मैं शायद सबसे
ज्यादा अपनी तन्हाईं को खोता
मेहसूस कर रही हूं....

शशीकला सिंह।

8 comments:

  1. man ke dukh kee khoobsurat abhivyakti.

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  2. समय की गुलाम होती जा रही हूं मैं
    परिस्थितियों को थाम नहीं पा रही हूं मैं
    मन का अंतर्द्वंद बयां करती पंक्तियाँ..... बहुत सुंदर

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  3. bahut-bahut "Dhanyawaad"

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  4. प्यार जो परम सुख देता है
    कभी वो ही दुखों की दरियां बिछाता है।

    दुखो की सशक्त अभिव्यक्ति.......

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  5. dil ki gahraiyo se abhivyak rachana

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  6. kafi sundar aur dil ko chu lene wali rachna
    thanx

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